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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ५४४ शरीर से बाह्य प्रदेश फैले ते मुख्यपर्ने एक राजू के संख्यातवे भाग प्रमाण लंवे अर सूच्यंगुल के संख्यातवै भाग प्रमाण चौडे वा ऊंचे क्षेत्र को रोके । याका घनरूप क्षेत्रफल कीजिए, तब प्रतरांगुल का संख्यातवां भाग करि जगच्छे रणी का संख्यातवा भाग कौ गुण, जो प्रमाण होइ, तितना क्षेत्र भया । इसकरि दूरि मारणांतिक जीवनि का प्रमाण को गुणिये, तब सर्व जीव संबंधी दूर मारणांतिक समुद्घात का क्षेत्र हो है । अन्य मारणातिक समुद्घात का क्षेत्र स्तोक है, तातै मुख्य ग्रहण तिस ही का कीया। बहुरि तैजस समुद्घात विष शरीर से बाह्यप्रदेश निकस, ते बारा योजन लंवा, नव योजन चौडा, सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण ऊंचा क्षेत्र को रोकै, सो याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात घनांगुल प्रमाण भया । इसकरि तैजस समुद्घात करनेवालों का प्रमाण संख्यात है । तिसको गुण जो प्रमाण होइ, तितना तैजस समुद्घात विष क्षेत्र जानना । बहुरि पाहारक समुद्घात विषे एक जाव के शरीर से बाह्य निकसे प्रदेश, ते संख्यात योजन प्रमाण लंबा, अर सूच्यंगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडा ऊचा क्षेत्र को रोकै, याका घनरूप क्षेत्रफल संख्यात धनांगुल प्रमाण भया । इसकरि आहारक समुद्घातवाले जीवनि का संख्यात प्रमाण है; ताको गुण जो प्रमाण होइ, तितना आहारक समुद्घात विष क्षेत्र जानना । मूल शरीर से निकसि आहारक शरीर जहां जाइ, तहा पर्यंत लंबी आत्मा के प्रदेशनि की श्रेणी सच्यगुल का संख्यातवां भाग प्रमाण चौडी अर ऊची आकाश विषै हो है; असा भावार्थ जानना । जैसे ही मारणांतिक समुद्घातादिक विर्ष भी भावार्थ जानि लेना ।
मरदि असंखेज्जविमं, तस्सासंखा य विगहे होंति । तस्सासंखं दूरे, उववादे तस्स खु असंखं ॥५४४॥
म्रियते असंख्येयं, तस्यासंख्याश्च विग्रहे भवंति ।
तस्यासंख्यं दूरे, उपपादे तस्य खलु असंख्यम् ॥५४४॥ टीका - इस सूत्र का अभिप्राय उपपाद क्षेत्र ल्यावने का है, सो पीत लेश्यावाले सौधर्म - ईशानवी जीव मध्यलोक ते दूर क्षेत्रवर्ती है; सो तिनके कथन में क्षेत्र का परिमाण बहुत आवै । बहुत प्रमाण में स्तोक प्रमाण गर्भित करिए है। तातै तिनकी मुख्यता करि उपपाद क्षेत्र का कथन कीजिए है ।
सौधर्म - ईशान स्वर्ग के वासी देव धनांगुल का तृतीय वर्गमूल करि जगच्छणी को गुरिणए, तितने प्रमाण है । इस प्रमाण को पल्य का असंख्यातवा भाग