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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ५५ पूर्वस्पर्द्धकनि के अपूर्वस्पर्द्धक अर तिनकी सूक्ष्मकृष्टि करिए है, तिनका स्वरूप, विधान, प्रमाण, समय-समय सम्बन्धी क्रियाविशेष इत्यादिक का अर करी सूक्ष्मकृष्टि, ताकौं भोगवता सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाती ध्यान युक्त हो है, ताका वा तहा सभवते स्थितिअनुभागघात वा गुणश्रेणी आदि विशेष का वर्णन है ।
बहुरि अयोगकेवली का वर्णन है । तहां ताकी स्थिति का, शैलेश्यपना का, ध्यान का, तहा अवशेष सर्व प्रकृति खिपवाने का वर्णन है ।
बहुरि सिद्ध भगवान का वर्णन है । तहां सुखादिक का, महिमा का, स्थान का, अन्य मतोक्त स्वरूप के निराकरण का इत्यादि वर्णन है । जैसे लब्धिसार क्षपणासार कथन की सूचनिका जाननी ।
___ बहुरि अन्त विर्षे अपने किछु समाचार प्रगट करि इस सम्यग्ज्ञानचद्रिका की समाप्तता होते कृतकृत्य होइ आनद दशा को प्राप्त होना होइगा । जैसै सूचनिका करि ग्रंथसमुद्र के अर्थ संक्षेपपनै प्रकट किए है ।
इति सूचनिका।
परिकर्माष्टक सम्बन्धी प्रकरण बहुरि इस करणानुयोगरूप शास्त्र के अभ्यास करने के अर्थि गणित का ज्ञान अवश्य चाहिये, जात अलंकारादिक जानै प्रथमानुयोग का, गणितादिक जाने करणानुयोग का, सुभाषितादिक जानै चरणानुयोग का, न्यायादि जानै द्रव्यानुयोग का विशिष्ट ज्ञान हो है, तातै गणित ग्रंथनि का अभ्यास करना। अर न बने तो परिकर्माष्टक तौ अवश्य जान्या चाहिये । जाते याकौ जाणे अन्य गणित कर्मनि का भी विधान जानि तिनको जाने पर इस शास्त्र विष प्रवेश पावै । ताते इस शास्त्र का अभ्यास करने को प्रयोजनमात्र परिकर्माष्टक का वर्णन इहा करिए है
तहां परिकर्माष्टक विषै संकलन, व्यवकलन, गुणकार, भागहार, वर्ग, घन, वर्गमूल, घनमूल ए आठ नाम जानने । ए लौकिक गणित विष भी सभव है, अर अलौकिक गणित विष भी संभव है । सो लौकिक गणित तो प्रवृत्ति विष प्रसिद्ध ही है । अर अलौकिक गणित जघन्य संख्यातादिक वा पल्यादिक का व्याख्यान आगे जीवसमासाधिकार पूर्ण भए पीछे होइगा, तहां जानना । अव संकलनादिक का स्वरूप