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पंद्रहवां अधिकार : लेश्या - मार्गणा
सुधाधार सम धर्म तै, पोषे भव्य सुधान्य । प्राप्त कीए निज इष्ट कौं, भजौ धर्म धन मान्य ॥
आगे लेश्या मागंणा कह्या चाहै है । तहां प्रथम ही निरुक्ति लीएं लेश्या का लक्षण कहै है
fies अप्पीकीरs, एदीए णिय पुण्णपुण्णं च ॥ जीवो त्ति होदि लेस्सा, लेस्सागुणजाणयक्खादा ॥४८६ ॥
feपत्यात्मीकरोति, एतया निजापुण्यपुण्यं च ।
जीव इति भवति लेश्या, लेश्यागुणज्ञायंकाख्याता ॥ ४८९ ॥
टीका - लेश्या दोय प्रकार एक द्रव्य लेश्या, एक भाव लेश्या । तहां इस सूत्र विषै भाव लेश्या का लक्षण का है । लिपति एतया इति लेश्या, पाप र पुण्य को जीव नामा पदार्थ, इस करि लिप्त करें है, अपने करें है, निज संबंधी करै है; सो सो लेश्या, लेश्या लक्षण के जाननहारे गणधरादिकनि करि कहा है । इस करि आत्मा कर्म करि आत्मा को लिप्त करें है, सो लेश्या अथवा कषायनि का उदय करि अनुरंजित जो योगनि की प्रवृति, सो लेश्या कहिए ।
इस ही अर्थ को स्पष्ट करे है
जोगपउत्ती लेस्सा, कसायउदयानुरंजिया होई । तत्तो दोष्णं कज्जं, बंधचउक्कं समुद्दिट्ठे ॥४६॥
योगप्रवृत्तिर्लेश्या कषायोदयानुरंजिता भवति ।
ततो द्वयोः कार्य, बंधचतुष्कं समुद्दिष्टम् ॥४९० ॥
टीका मन, वचन, कायरूप योगनि की प्रवृत्ति सो लेश्या है । सो योगनि की प्रवृत्ति कषायनि का उदय करि अनुरंजित हो है । तिसतै योग अर कषाय इनि
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१ षट्खडागम-घवला पुस्तक १, पृष्ठ १९१, गांथा सं. ६४ । २ पाठभेद 'नियय पुण्णव च' ।