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[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा ४४६-४४७-४४८ ५६४ ]
मनःपर्ययश्च ज्ञानं, सप्तसु विरतेषु सप्तर्षीनाम् ।
एकादियुतेषु भवेद्वर्धमानविशिष्टाचरणेषु ॥४४५॥ टीका - प्रमत्त आदि सात गुणस्थान विर्ष १. बुद्धि, २. तप, ३. वैक्रियिक, ४. औषध, ५. रस, ६. बल, ७. अक्षीण इनि सात रिद्धिनि विष एक, दोय आदि रिद्धिनि करि संयुक्त, बहुरि वर्धमान विशेष रूप चारित्र के धारी जे महामुनि, तिनिके मनःपर्यय ज्ञान हो है; अन्यत्र नाहीं ।
इंदियणोइंदियजोगादि, पेक्खित्तु उजुमदी होदि । जिरवेक्खिय विउलमदी, प्रोहिं वा होदि णियमेण ॥४४६॥
इंद्रियनोइंद्रिययोगादिमपेक्ष्य ऋजुमतिर्भवति ।
निरपेक्ष्य विपुलमतिः, अवधिर्वा भवति नियमेन ॥४४६।। टीका - ऋजुमति मन पर्ययज्ञान है ; सो अपने वा अन्य जीव के स्पर्शनादिक इंद्री अर नोइंद्रिय मन अर मन, वचन, काय योग तिनिकी सापेक्ष तें उपजै है । बहुरि विपुलमति मन पर्यय है; सो अवधिज्ञान की सी नाई, तिनकी अपेक्षा बिना ही नियम करि उपजै है।
पडिवादी पुण पढमा, अप्पडिवादी हु होदि बिदिया है। सुद्धो पढमो बोहो, सुद्धतरो विदियबोहो दु ॥४४७॥
प्रतिपाती पुनः प्रथमः, अप्रतिपाती हि भवति द्वितीयो हि ।
शुद्धः प्रथमो बोधः, शुद्धतरो द्वितीयबोधस्तु ॥४४७॥ टीका - पहिला ऋजुमति मनःपर्यय है, सो प्रतिपाती है। बहुरि दूसरा विपुलमति मन पर्यय है, सो अप्रतिपाती है । जाकै विशुद्ध परिणामनि की घटवारी होइ, सो प्रतिपाती कहिये । जाकै विशुद्ध परिणामनि की घटवारी न होइ, सो अप्रतिपाती कहिये । वहुरि ऋजुमति मन पर्यय तौ विशुद्ध है; जातै प्रतिपक्षी कर्म के क्षयोपशम ते निर्मल भया है । बहुरि विपुलमति मन पर्यय विशुद्धतर है, जाते अतिशय करि निर्मल भया है।
परमणसि टिव्यमठें, ईहामदिरणा उजुट्ठिय लहिय । पच्छा पच्चक्खण य, उजुमदिरणा जाणद्रे रिणयमा ॥४४८॥