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________________ ५५२ ) { गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया ४२१ टीका - देयराशि के अर्धच्छेदनि का भाग लोक के अर्धच्छेदनि को दीए, जो प्रमाण होइ, ताका विवक्षित पद का संकलित धन को भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितना लोकमात्र परिमाण मांडि, परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण आवै, सो विवक्षित पद विष क्षेत्र वा काल का गुणकार जानना । जैसे ही परमावधि का अंत भेद विर्षे गुणकार जानना । सो यहु कथन प्रथम अंकसंदृष्टि करि दिखाइए है । देयराशि चौसठि का चौथा भाग, ताके अर्धच्छेद च्यारि, तिनका भाग दोय सै छप्पन का अर्धच्छेद आठ, तिनिको दीजिए; तब दोय पाया । तिनिका भाग विवक्षित स्थान तीसरा ताका पूर्वोक्त संकलित धन ल्यावने का सूत्र करि तीन, च्यारि को दोय, एक का भाग दीए, सकलित धन छह तिनिकौ दीजिए, तब तीन पाया; सो तीन जायगा दोय सै छप्पन माडि, परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण होइ, सोई तीसरा स्थान विष गुणकार जानना । अब इहां कथन है सो कहिए है - देयराशि आवली का असंख्यातवां भाग, ताके अर्धच्छेद राशि, जो आवली के अर्धच्छेदनि में स्यौ भागहारभूत असंख्यात के अर्धच्छेद घटाएं, जो प्रमाण रहै, तितना जानना । सो जैसे इस देय राशि के अर्धच्छेद सख्यात घाटि परीतासंख्यात का मध्य भेद प्रमाण हो है। तिनिका भाग लोकप्रमाण के जेते अर्धच्छेद होइ, तिनको दीजिए, जो प्रमाण आवै, ताका भाग विवक्षित जो कोई परमावधि ज्ञान का भेद, ताका जो संकलित धन होइ, ताको दीजिए, जो प्रमाण प्रावै, तितना लोक माडि, परस्पर गुणन कीए, जो प्रमाण आवै, सो तिस भेद विष गुणकार जानना । इस गुणकार करि देशावधि का उत्कृष्ट लोकप्रमाण क्षेत्र को गुणै, जो प्रमाण होइ, यो तिस भेद विष क्षेत्र का परिमाण जानना । बहुरि इस गुणकार करि देशावधि का उत्कृष्ट एक समय घाटि पल्य प्रमाण काल को गुणै, जो प्रमाण होइ, सो तिस भेद विष काल का परिमाण जानना । असै ही परमावधि का अत का भेद विषै आवली का असख्यातवा भाग का अर्धच्छेदनि का भाग लोक का अर्धच्छेद को दीए, जो प्रमाण होइ, ताकौ अत का भेद विषै जो सक- .. लित धन होइ, ताको भाग दीए जो प्रमाण आवै, तितना लोक माडि परस्पर गुणन कीए जो प्रमाण होइ, सोई अंत का भेद विषै गुणकार जानना । इहां प्रत का भेद विष पूर्वोक्त सकलित धन ल्यावने कौ करणसूत्र के अनुसारि संकलित धन ल्याइए, तब अग्निकायिक के अवगाह भेदनि करि गुरिणत अग्निकायिक जीवनि का प्रमाण मात्र गच्छ, सो एक अधिक गच्छ पर सपूर्ण गच्छ को दोय एक का भाग दीए, जो प्रमाण
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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