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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
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बहुरि देशावधि भी सम्यग्दर्शनादि गुरण होत सतै हो है, तातै गुणप्रत्यय अवधि तो तीन प्रकार ही है । अर भवप्रत्यय अवधि एक देशावधि ही है ।
देसावहिस्स य अवरं, गरतिरिये होदि संजदमि वरं । परमोही सव्वोही, चरमसरीरस्स विरदस्स || ३७४॥
टीका देशावधि का जघन्य भेद सयमी वा असयमी मनुष्य, तियंच विषै ही हो है; देव, नारकी विषे न हो है । बहुरि देशावधि का उत्कृष्ट भेद सयमी, महाव्रती, मनुष्य विषै ही हो है; जाते और तीन गति विषे महाव्रत संभव नाहीं ।
देशावधेश्च वरं, नरतिरश्चोः भवति संयते वरम् । परमावधिः सर्वावधिः, चरमशरीरस्य विरतस्य || ३७४ ||
नाही ।
बहुरि परमावधि र सर्वावधि जघन्य वा उत्कृष्ट (वा) चरम शरीरी महाव्रतो मनुष्य विषै संभव है ।
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चरम कहिए संसार का अत विषै भया, तिस ही भवतं मोक्ष होने का कारण, असा वज्रवृषभनाराच शरीर जिसका होइ, सो चरमशरीरी कहिए ।
टीका
पडिवादी सोही, पडिवादी हवंति सेसा ओ । मिच्छत्तं अविरमरणं, ण य पडिवज्जंति चरिमदुगे || ३७५ ||
प्रतिपाती देशावधिः, अप्रतिपातिनौ भवतः शेषौ अहो । मिथ्यात्वमविरमण, न च प्रतिपद्यन्ते चरमद्विके ॥ ३७५ ॥
देशावधि ही प्रतिपाती है; शेष परमावधि, सर्वावधि प्रतिपाती
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प्रतिपात कहिए सम्यक् चारित्र सौ भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असयम की प्राप्त होना, तीहि सयुक्त जो होइ; सो प्रतिपाती कहिए ।
जो प्रतिपाती न होइ, सो प्रतिपाती कहिए । देशावधिवाला तो कदाचित् सम्यक्त्व चारित्र सौ भ्रष्ट होइ, मिथ्यात्व असयम को प्राप्त हो है । र चरमद्विक कहिए अंत का परमावधि - सर्वावधि दोय ज्ञान विषै वर्तमान जीव, तो निश्चय त