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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका पीठिका ]
[ ४६ उदय का वर्णन है । बहुरि एक जीव के युगपत् संभवती प्रकृतिनि के सत्त्व का रस स्थिति, अनुभाग, प्रदेश के सत्त्व का वर्णन है । बहुरि करणलब्धि का कथन विषै तीन करणनि का नाम-कालादिक कहि तिनके स्वरूपादिक का वर्णन है ।
तहां अधःकरण विष स्थितिबंधापसरणादिक आवश्यक हो है, तिनका वर्णन है।
अर अपूर्वकरण विर्षे च्यारि आवश्यक, तिनविषै गुणश्रेणी निर्जरा का कथन है। तहां अपकर्षण किया हया द्रव्य को जैसे उपरितन स्थिति गुणत्रैणी आयाम उदयावली विष दीजिए है, सो वर्णन है। तहां प्रसंग पाइ उत्कर्षण वा अपकर्षण किया हुआ द्रव्य का निक्षेप अर प्रतिस्थापन का विशेष वर्णन है । बहुरि गुणसक्रमण इहा न संभव है, सो जहां संभव है ताका वर्णन है । बहुरि स्थितिकाडक, अनुभागकांडक के स्वरूप, प्रमाणादिक का अर स्थिति, अनुभागकांडकोत्करण काल का वर्णनपूर्वक स्थिति, अनुभाग, सत्त्व घटावने का वर्णन है ।
बहुरि अनिवृत्तिकरण विर्ष स्थितिकांडकादि विधान कहि ताके काल का संख्यातवां भाग रहे अंतरकरण हो है, ताके स्वरूप का, अर आयाम प्रमाण का, अर ताके निषेकनि का अभाव करि जहां निक्षेपण कीजिए है ताका इत्यादि वर्णन. है । बहुरि अंतरकरण करने का अर प्रथम स्थिति का, अर अंतरायाम का काल वर्णन है । बहुरि अंतरकरण का काल पूर्ण भए पीछे प्रथम स्थिति का काल विष दर्शनमोह के उपशमावने का विधान, काल, अनुक्रमादिक का, तहां आगाल, प्रत्यागाल जहां पाइए है वा न पाइए है ताका, दर्शनमोह की गुणश्रेणी जहा न होइ है, ताका इत्यादि अनेक वर्णन है।
बहुरि पीछे अंतरायाम का काल प्राप्त भए उपशम सम्यक्त्व होने का, तहा एक मिथ्यात्व प्रकृति को तीन रूप परिणमावने के विधान का वर्णन है । बहुरि उपशम सम्यक्त्व का विधान विर्ष जैसे काल का अल्पबहुत्व पाइए है, तैसै वर्णन है ।
___ बहुरि प्रथमोपशम सम्यक्त्व विर्षे मरण के अभाव का, अर तहा ते सासादन होने के कारण का, अर उपशम सम्यक्त्व का प्रारंभ वा निष्ठापन विष जो-जो उपयोग, योग, लेश्या पाइए ताका, अर उपशम सम्यक्त्व के काल, स्वरूपादिक का, अर तिस काल को पूर्ण भए पीछे एक कोई दर्शनमोह की प्रकृति उदय प्रावने का, तहा जैसे