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सम्यग्ज्ञानचन्त्रिका भाषाटोका ]
[ ५२३ नाभि के ऊपरि शंख, कमल, वज्र, साथिया, माछला, कलस इत्यादिक का आकार रूप जहा शरीर विषै भले लक्षण होइ, तहां संबंधी जे आत्मा के प्रदेश, तिनि विर्षे तिष्ठता जो अवधिज्ञानावरण कर्म अर वीर्यांतराय कर्म, तिनिके क्षयोपशम ते उत्पन्न
भवप्रत्यय अवधिज्ञान विष भी सम्यग्दर्शनादि गुण का सद्भाव है, तथापि उन गुणों की अपेक्षा नाही करने ते भवप्रत्यय कह्या अर गुणप्रत्यय विष मनुष्य तियंच भव का सद्भाव है; तथापि उन पर्यायनि की अपेक्षा नाही करने ते गुणप्रत्यय कह्या है।
गुणपच्चइगो छद्धा, अणुगावट्ठिदपवड्ढमाणिदरा। देसोही परमोही, सम्वोहि ति यतिधा अोही ॥३७२॥
गुरणप्रत्ययकः षोढा, अनुगावस्थितप्रवर्धमानेतरे ।
देशावधिः परमावधिः, सर्वावधिरिति च त्रिधा अवधिः ॥३७२॥ टीका - जो गुणप्रत्यय अवधिज्ञान है, सो छह प्रकार है - अनुगामी, अवस्थित, वर्धमान, अर इतर कहिए अननुगामी, अनवस्थित, हीयमान असे छह प्रकार है।
__ तहां जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव के साथि ही गमन करें, ताकी अनुगामी कहिए । ताके तीन भेद - क्षेत्रानुगामी, भवानुगामी, उभयानुगामी । तहा जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र विष उपज्या था, तिस क्षेत्र को छोड़ि, जीव और क्षेत्र विप बिहार कीया, तहा भी वह अवधिज्ञान साथि ही रह्या, विनष्ट न हुवा और पर्याय धरि विनष्ट होइ, सो क्षेत्रानुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस पर्याय विष उपज्या था, तिस पर्याय को छोडि, जीव और पर्याय को धर्या तहा भी वह अवधिज्ञान साथि ही रह्या, सो भवानुगामी कहिए । बहुरि जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र वा पर्याय विष उपज्या था, तातै जीव अन्य भरतादि क्षेत्र विप गमन कीया वा अन्य देवादि पर्याय धऱ्या, तहा साथि ही रहै, सो उभयानुगामी कहिए ।
बहुरि जो अवधिज्ञान अपने स्वामी जीव की साथि गमन न करे, सो अननुगामी कहिए । याके तीन भेद क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी, उभयाननुगामी । तहा जो अवधिज्ञान जिस क्षेत्र विपै उपज्या होइ, तिस क्षेत्र विपं तो जीव पार पर्याय धरी वा