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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका 1
[ ४६ विष द्विचरम चूणिचूरिण है; ताका प्रमाण जघन्य को सूच्यगुल का असंख्यातवा भागमात्र बार भाग दीएं; जो प्रमाण आवै, तितना जानना। याको पूर्वोक्त गुणकार करि गुरणे एक का भाग दीएं, तिस कोठा संबधी प्रमाण प्राव है। बहुरि जैसे ही अंत का चूणिचूणि विर्ष सकलन है ही नाही; जाते अंत का चूणिचूणि एक ही है । सो जघन्य कौं सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र बार अनत का भाग दीएं अंत चूणिचूणि का प्रमाण हो है । ताको एक करि गुण भी तितना ही तिस कोठा विष वृद्धि का प्रमाण जानना । असै सूच्यंगुल का असंख्यातवां भागमात्र अनतभाग वृद्धि युक्त स्थान होइ; तब एक असंख्यात भागवृद्धि युक्त स्थान हो है । इहां ऊर्वक जो अनंत भागवृद्धि युक्त अत स्थान, ताकौं चतुरंक जो असख्यात का भाग दीये, जो एक भाग का प्रमाण आवै, तितना तिस ही पूर्वस्थान विर्षे जोड्या, सो इहा जघन्य ज्ञान साधिक कहिये; किछु अधिक भया । अकसंदृष्टि का दृष्टात विष स्तोक प्रमाण है । तातें जघन्य तौ गुणकार भया । यथार्थ विषै महत् प्रमाण है, ताते असे वृद्धि होते भी साधिकपना ही भया है । अब जैसे जघन्य ज्ञान को मूल स्थापि, जैसे अनतभागवृद्धिस्थान प्रक्षेपकादि विशेष लीये कहे थे; तैसे इहातै आगे इस साधिक जघन्य को मूल स्थापि, अनंत भाग वृद्धि युक्त स्थान सूच्यगुल का असंख्यातवां भाग मात्र जानने । जैसे ही पूर्वोक्त यन्त्र द्वार करि जैसे अनुक्रम दिखाया, तैसे अनंत गुणवृद्धि पर्यत क्रम जानना । तहां भाग वृद्धि विष प्रक्षेपकादिक वृद्धि का विशेष जानना; सो जिस स्थान ते आगे भागवृद्धि होइ; ताको मूल स्थापन करना । ताकौ एक वार जिस प्रमाण की भागवृद्धि होइ, ताका एक वार भाग दीए, प्रक्षेपक हो है । दोय वार भाग दिये प्रक्षेपकप्रक्षेपक हो है । तीन वार आदि भाग दीये, पिशुलि आदिक हो है, असा विधान जानना । असे सर्वत्र षट्स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम जानना ।
आदिमछठाणह्मि य, पंच य बड्ढी हवंति सेसेसु । छन्वढ्डीओ होंति हु, सरिसा सव्वत्थ पदसंखा ॥३२७॥
प्रादिमषट्स्थाने च, पंच च वृद्धयो भवंति शेषेषु ।
षड्वृद्धयो भवंति हि, सहशा सर्वत्र पदसंख्या ॥३२७॥ टीका - इस पर्यायसमास ज्ञान विषै असंख्यात लोक मात्र वार पट्स्थान संभव है । तिनिविर्ष पहिली वार तो पांच स्थान पतितवृद्धि हो है । जाते जो पीछे हो पीछे अनंतगुण वृद्धिरूप भेद भया, ताकी दूसरी वार पट्स्थानपतित वृद्धि का