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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ४४१ से रहित है । बहुरि 'असाधनीया' कहिए प्रमाण करने योग्य नाही । याही ते संत पुरुषनि को आदरने योग्य नाही । असे शास्त्राभ्यासनि ते भया जो श्रुतज्ञान की सी आभासा लीएं कुज्ञान, सो श्रुत अज्ञान कहिए । जातै प्रमाणीक इष्ट अर्थ ते विपरीत अर्थ याका विषय हो है । इहां मति, श्रुत अज्ञान का वर्णन उपदेश लीए किया है।
___ अर सामान्यपनै तौ स्व-पर भेदविज्ञान रहित इंद्रिय, मन जनित जानना, सो सर्व कुमति, कुश्रुत है।
विवरीयमोहिणारणं, खोवसमियं च कम्मबीजं च । वेभंगो त्ति पउच्चइ, समत्तणाणीण समयम्हि ॥३०॥
विपरीतमवधिज्ञानं, क्षायोपशमिकं च कर्मबीजं च ।
विभंग इति प्रोच्यते, समाप्तज्ञानिनां समये ॥३०॥ टीका - मिथ्यादृष्टी जीवनि के अवधिज्ञानावरण, वीर्यातराय के क्षयोपशम ते उत्पन्न भया; जैसा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा लीएं रूपी पदार्थ है विषय जाका, असा प्राप्त, आगम, पदार्थनि विर्षे विपरीत का ग्राहक, सो विभंग नाम पावै है । वि कहिए विशिष्ट जो अवधिज्ञान, ताका भंग कहिए विपरीत भाव, सो विभंग कहिए; सो तिर्यच-मनुष्य गति विष तौ तीव्र कायक्लेशरूप द्रव्य सयमादिक करि उपजै है; सो गुणप्रत्यय हो है। . .
बहरि देवनरक गति विर्षे भवप्रत्यय हो है । सो सब ही विभंगजान मिथ्यात्वादि कर्मबध का बीज कहिए कारण हैं । चकार ते कदाचित् नारकादिक गति विर्ष पूर्वभव सम्बन्धी दुराचार के दुख' फल कौं जानि, कही सम्यग्दर्शनज्ञानरूप धर्म का भी बीज हो है; असा विभंगज्ञान, समाप्तज्ञानी- जो सपूर्ण ज्ञानी केवली, तिनिके मत विषै कह्या है।
। आगै स्वरूप वा उपजने का कारण वा भेद वा विषय, इनिका आश्रय करि मतिज्ञान का निरूपण नव गाथानि करि कहै है -
अहिमूह-णियमिय-बोहरणमाभिणिबोहियमणिदि-इंदियज ।
३ अवगहईहावायाधारणगा होति पत्तेयं ॥३०६॥२ १ पट्खडागम - धवला पुस्तक १, गाथा १८१, पृष्ठ ३६१ । २ पटखडागम-धवला पुस्तक १, गाथा १८२, पृष्ठ ३६१ । ३. पाठभेद - बहु प्रोग्गहाईणा खलुकय-छत्तीस-त्ति-सय-भेय ।