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म्यग्ज्ञानचनिया मापाटी
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देइ, एक भाग की जुदा राखि, अवशेष बहभाग समान भाग संबंधी परिमाण विवें मिलाएं क्रोध का काल होइ। बहरि जो मवशेष एक भाग रहा, ताको समान भाग संबंधी परिमाण विर्षे मिलाएं, मानकषाय का काल होइ।
अब इहां राशिक करना-जो च्यारि कषायनि के काल का परिमाण विर्ष सर्व मनुष्य पाइए, तो लोभ कषाय का काल विष केते मनुष्य पाइए?
इहां प्रमाणराशि च्यारों कषायनि का समुच्चयरूप काल का परिमाण पर फलगशि मनुष्य गति के जीवनि का परिमाण भर इच्छाराशि लोभ कषाय के काल का परिमाण । तहां फलराशि की इच्छाराशि करि गुरिण, प्रमाण राशि का भाग दीएं, जो लब्धराशि का प्रमाण मार्व, तितने लोभकषायवाले मनुष्य जानने । असे ही प्रमाण फलराशि पूर्वोक्त कीएं, माया क्रोध मान काल को इच्छाराशि कीए, लब्धराशि मात्र मायावाले वा क्रोधवाले वा मानवाले मनुष्यनि की संख्या जाननी । बहुरि याही प्रकार तिर्यच गति विर्षे भी लोभवाले, मायावाले, क्रोधवाले, मानवाले जीवनि की संख्या का साधन करना । विशेष इतना जो उहां फलराशि मनुष्यनि का परिमाण था, इहां फलराशि तिपंच जीवनि का परिमाण जानना । अन्य विधान तैसे ही करना । असै कषायमार्गणा विर्षे जीवनि की संख्या है ।
इति प्राचार्य श्री नेमिचंद्र सिद्धांतचक्रवर्ती विरचित गोम्मटसार द्वितीय नाम पंचसंग्रह ग्रन्थ की जीवतत्वप्रदीपिका नामा संस्कृत टीका के अनुसारि सम्यग्ज्ञानचद्रिका ' नाम भाषाटीका विष जीवका विष प्ररूपित जे वीस प्ररूपणा तिनि विष कषायमार्गरणा प्ररूपणा नाम ग्यारमा
अधिकार सम्पूर्ण भया ॥११॥