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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
कोहादिकसायाणं, चउचउदसवीस होंति पदसंखा । सत्तीलेस्साआउगबंधाबंधगदभेदेहि
॥ २६०॥
starदिकषायाणां चत्वारः चतुर्दश विशतिः भवंति पदसंख्याः । शक्तिलेश्यायुष्कबंधाबंधगत भेदैः
॥२९०॥
टीका - क्रोध- मान-माया - लोभ कषाय, तिनकी शक्ति स्थान के भेद करि च्यारि संख्या है । लेश्या स्थान के भेद करि चौदह संख्या है । आयुर्बल के बंधने के अबंधने के स्थान भेद करि बीस संख्या है ।
ते स्थान आगे कहिए है
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सिल- सेल - वेणुमूल - क्किमिरायादी कमेण चत्तारि । कोहादिकसायारणं, सत्ति पडि होंति नियमेण ॥ २६१॥
[ ४२१
शिलाशैलवेणुमूलक्रिमिरागादीनि क्रमेण चत्वारि ।
क्रोधादिकषायारणां, शक्ति प्रति भवंति नियमेन ॥ २९९ ॥
टीका - क्रोधादिक जें कषाय, तिनिकें शक्ति कहिए अपना फल देने की सामर्थ्य, ताकी अपेक्षा ते निश्चय करि च्यारि स्थान है । ते अनुक्रम तें तीव्रतर, तीव्र, मंद, मंदतर, अनुभागरूप वा उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, अजघन्य, जघन्य अनुभाग रूप जानने । तहां शिलाभेद, शैल, वेणुमूल, क्रिमिराग ए तौ उत्कृष्ट शक्ति के उदाहरण जानने । श्रादि शब्द ते पूर्वोक्त अनुत्कृष्टादि शक्ति के उदाहरण दृष्टातमात्र कहे है, ते सर्व जानने । ए दृष्टात प्रगट व्यवहार का अवधारण करि है । अर परमागम का व्यवहारी आचार्यनि करि मंदबुद्धी शिष्य समभावने के अर्थ व्यवहार रूप कीए है । जातै दृष्टात के बल करि ही मंदबुद्धी समझ है । ताते दृष्टांत की मुख्यता करि दृष्टांत के नाम, तेई शक्तिनि के नाम प्रसिद्ध कीएं है ।
किहं सिलासमारणे, किण्हादी छक्कमेण भूमिम्हि । छक्कादी सुक्को ति य, धूलिम्मि जलम्मि सुक्केदका ॥२६२॥
कृष्णा शिलासमाने, कृष्णादयः षट् क्रमेण भूमौ ।
षट्कादिः शुल्केति च धूलो जले शुक्लका ॥ २९२॥