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________________ ३८२ j [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३ करना । अवशेष गुणकाररूप असख्यात रहि गया, सो इस असंख्यात का जेता प्रमाण होइ तितना ही पल्य माडि, परस्पर गुणन करना, जात असख्यातगुणा पल्य का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा माडि, परस्पर गुणे, जेता प्रमाण होइ, तितना ही पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग दीए, अवशेष गुणकार मात्र असख्यात रह्या, तितना पल्य माडि, परस्पर गुणे प्रमाण हो है । जैसे पल्य का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, असख्यात का प्रमाण तीन, सो तीनि करि च्यारि को गुणे, बारह होइ । सो बारह जायगा दूवा मांडि, परस्पर गुणे, च्यारि हजार छिनवै होइ । सोई बारह को च्यारि का भाग दीएं, गुणकार मात्र तीन रह्या, सो तीन जायगा सोलह मांडि, परस्परगुणे, च्यारि हजार छिनवै होइ । तातै सुगमता के अथि पूर्वोक्त राशि को पल्य का अर्धच्छेद राशि का भाग देइ, लब्धिराशि असख्यात प्रमाण पल्य माडि, परस्पर गुणन कीया । सो इहां यह गुणकाररूप असंख्यात है । सो पल्य का अर्धच्छेदनि के असख्यातवे भाग मात्र जानना । पल्य का अर्धच्छेदराशि समान जानना । जो पल्य का अर्धच्छेद समान यहु असख्यात होइ, तौ इतने पल्य मांडि, परस्पर गुण, तैजस शरीर की स्थिति संबंधी अन्योन्याभ्यस्तराशि सूच्यंगुल प्रमारण होइ; सो है नाही; तातें शास्र विषै क्षेत्र प्रमाण करि सूच्यगुल के असंख्यातवे भाग मात्र काल प्रमाण करि असख्यात कल्पकाल मात्र तेजस शरीर की स्थिति सबधी अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण कह्या है। तातै पल्य का अर्धच्छेद का असख्यातवा भाग मात्र असंख्यात का विरलन करि एक-एक प्रति पल्य को देइ, परस्पर गुणे, सूच्यंगुल का असंख्यातवा भाग मात्र प्रमाण हो है । सो द्विरूप वर्गधारा विर्षे पल्यराशिरूप स्थान ते ऊपरि इहां विरलनराशिरूप असख्यात के जेते अर्धच्छेद होहि, तितने वर्गस्थान गए यह राशि हो है। बहुरि विरलनरासीदो पुरण, जेत्तियमेत्तारिण होणरूवारिण । तेसि अण्णोण्णहदी, हारो उप्पण्णरासिस्स ॥ इस सूत्र के अभिप्राय ते जो ऋणरूप राशि जुदा स्थाप्या था, ताका अपवर्तन कीए, एक का असख्यातवा भाग भया । याको पल्य करि गुणे, पल्य का असंख्यातवां भाग भया, जाते असंख्यात गुणा पल्य की वर्गशलाका का अर्धच्छेद प्रमाण दूवा मांडि, परस्पर गुणे, भी इतना ही प्रमाण है । तातै सुगमता के अर्थि इहां पल्य का अर्घच्छेद राशि का भाग देइ, एक का असख्यातवा भाग पाया, ताकरि पल्य का
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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