________________
३८० ]
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा २५३ कीए लब्धराशि संख्यात पल्य कौ पल्य की वर्गशलाका के अर्धच्छेदनि करि हीन पल्य के अर्धच्छेदराशि का भाग दीए, जितना आवे तितना जानना । जैसे लब्धराशि मात्र एकगुणहानि का आयाम जानना । इतने-इतने समयनि के समूह का नाम एकगुणहानि है । सर्व स्थिति विष जेती गुणहानि पाइए, तिस प्रमाण का नाम नानागुणहानि है; असा इहा भावार्थ जानना ।
बहुरि नानागुणहानि का जेता प्रमाण तितने दूवे माडि, परस्पर गुणे, जितना प्रमाण होइ, सो अन्योन्याभ्यस्तराशि जानना। जैसे नानागुणहानि का प्रमाण छह सो छह का विरलन करि एक-एक जायगा दोय के अक मांडि, परस्पर गुण चौसठि होंइ; सोई अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण जानना । तैसे ही औदारिक
आदि शरीरनि की स्थिति विष जो-जो नानागुणहानि का प्रमाण कह्या, ताका विरलन करि एक-एक बखेरि अर एक-एक जायगा दोय-दोय देइ, परस्पर गुण, अपना-अपना अन्योन्याभ्यस्तराशि का प्रमाण हो है । तहां लोक के जेते अर्धच्छेद है; तितने दूवेनि कौ परस्पर गुणे, लोक होइ । तौ इहां नानागुणहानि प्रमाण दुवे माडि, परस्पर गुणे, केते लोक होइ ? जैसे त्रैराशिक करना। तहां लब्धराशि ल्यावने के अथि सूत्र कहिए है
दिण्णच्छेदेणवहिद, इटुच्छेदेहि पयदविरलणं भनिदे ।
लद्धमिदइट्ठरासी, णण्णोण्णहदीए होदि पयदधणं ॥२१४॥ असा कायमार्गणा विषे सूत्र कह्या था, ताकरि इहां देयराशि दोय, ताका अर्धच्छेद एक ताका भाग इप्टच्छेद लोक के अर्धच्छेद को दीए, इतने ही रहे, इनि लोक के अर्धच्छेदनि के प्रमाण का भाग औदारिक शरीर की स्थिति सबधी नानागुणहानि के प्रमाण की दीए, जो प्रमाण आवै, तितने इष्टराशिरूप लोक माडि, परस्पर गुणे, जो लब्धि प्रमाण होड, तितना औदारिक शरीर की स्थिति विष अन्योन्याभ्यस्त राशि का प्रमाण असख्यातलोकमात्र हो है । वहुरि तैसे ही वैक्रियिक शरीर विषै नानागुणहानि का प्रमाण को लोक का अर्धच्छेद राशि का भाग दीएं, जो प्रमाण आवै, तितने लोक माटि परस्पर गुण, वैक्रियिक शरीर की स्थिति विपै अन्योन्याभ्यस्त विष राशि हो है । सो यहु औदारिक शरीर की स्थिति सवधी अन्योन्याभ्यस्तराशि ते श्रमन्यात लोक गुरणा जानना। काहे ते ? जातै प्रतर्मुहूर्त करि भाजित तीन पल्य ते अंतर्महतं नारि भाजित नेतीन सागर को एक सौ दश कोडाकोडी का गुणकार संभव