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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] पत्यत्रयमुदधीनां त्रयस्त्रशवंतर्मुहूर्त उदधीनाम् । षट्षष्टिः कर्मस्थिति, बंधोत्कृष्ट स्थितिस्तेषाम् ॥ २५२ ।। टीका - तिनि श्रदारिक आदि पच शरीरनि की बंधरूप उत्कृष्ट स्थिति विषे औदारिक शरीर की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य है । वैक्रियिक शरीर की तेतीस सागर है । आहारक शरीर की अतर्मुहूर्त है । तैजस शरीर की छयासठ सागर है । कार्मारण की स्थितिबंध विषै जो उत्कृष्ट कर्म की स्थिति सो जाननी । सो सामान्यपर्ने सत्तर कोडाकोडी सागर है । विशेषपने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, अतराय की तीस कोडाकोडी, मोहनीय की सत्तर कोडाकोडी; नाम - गोत्र की बीस कोडाकोडी; आयु की तेतीस सागर प्रमारण जाननी । से पच शरीरनि की उत्कृष्ट स्थिति कही । अब इहा यथार्थ ज्ञान के निमित्त अकसंदृष्टि करि दृष्टांत कहिए है --- [ ३७७ जैसे समय बद्ध का परिमाण तरेसठि से (६३०० ) परमाणू स्थिति प्रडतालीस समय होइ, तैसे इहा पंच शरीरनि की समयप्रबद्ध के परमाणूनि का परिमाण अर स्थिति के जेते समय होहि, तिनि का परमाणू का परिमाण पूर्वोक्त जानना । आगे इनि पचशरीरनि की उत्कृष्ट स्थितिनि विषे गुणहानि आयाम का परिमाण कहै है - - तोमुहुत्तमेतं, गुणहाणी होदि आदिमतिगाणं । पल्लासंखेज्जदिमं, गुणहारगी तेजकम्माणं ॥ २५३ ॥ अंतर्मुहूर्तमात्रा, गुणहानिर्भवति श्रादिमत्रिकानां । पल्या संख्यात भागा गुणहानिस्तेजः कर्मणोः ॥ २५३ ॥ टीका-पूर्व- पूर्व गुणहानि ते उत्तर- उत्तर गुणहानि विषै गुणहानि का वा निपेकनि का द्रव्य दूर-दूणा घटता होइ है । तातै गुणहानि नाम जानना । सो जैसे अडतालीस समय की स्थिति विषै आठ-आठ समय प्रमाण एक - एक गुणहानि का आयाम हो है । तैसे आदि के तीन शरीर श्रदारिक, वैक्रियिक, आहारक तिनकी तो उत्कृप्ट स्थिति सं गुणानि यथायोग्य अंतर्मुहूर्त प्रमाण है । अपने-अपने योग्य अतर्मुहूर्त के जेते
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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