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________________ सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटोका [ ३७५ आगै विस्रसोपचय का स्वरूप कहै हैं - जीवादो गंतगुणा, पडिपरमाणुम्हि विस्ससोवचया । जीवेरण य समवेदा, एक्कक्कं पडिसमाणा हु ॥२४६॥ जीवतोऽनंतगुणाः प्रतिपरमाणौ विस्रसोपचयाः । जीवेन च समवेता एकैकं प्रति समानाः हि ॥२४९॥ टीका - कर्म वा नोकर्म के जितने परमाणु है, तिनि एक-एक परमाणूनि प्रति जीवराशि ते अनंतानत गुणा विस्रसोपचयरूप परमाणू जीव के प्रदेशनि स्यों एक क्षेत्रावगाही है । विसृसा कहिए अपने ही स्वभाव करि आत्मा के परिणाम विना ही उपचीयते कहिए कर्म-नोकर्म रूप विना परिणए जैसे कर्म-नोकर्म रूप स्कध, तीहि विष स्निग्ध-रूक्ष गुण का विशेष करि मिलि, एक स्कधरूप होंहि; ते विस्रसोपचय कहिए; जैसा निरुक्ति करि ही याका लक्षण आया; तातें जुदा लक्षण न कह्या । विस्रसोपचयरूप परमाणू कर्म-नोकर्मरूप होने को योग्य है। उन ही कर्म नोकर्म के स्कंध विर्ष एकक्षेत्रावगाही होइ संबंधरूप परिणमि करि एक स्कधरूप हो है। वर्तमान कर्म नोकर्मरूप परिणए है नाही; असे विस्रसोपचयरूप परमाणू जानने । ते कितने है ? सो कहिए है जो एक कर्म वा नोकर्म सबधो परमाणू के जीवराशि ते अनत गुणे विस्रसोपचयरूप परमाणू होंइ, तौ किछू घाटि ड्योढ गुणहानि का प्रमाण करि गुरिणत समयप्रबद्ध प्रमाण सर्वसत्त्वरूप कर्म वा नोकर्म के परमाणूनि के केते विस्रसोपचय परमाणू होहि; जैसै त्रैराशिक करना । इहा प्रमाण राशि एक, फलराशि अनतगुणा जीवराशि, इच्छाराशि किचिदून द्वयर्धगुणहानि गुणित समयप्रबद्ध । तहा इच्छा को फलराशि करि गुणि, प्रमाण का भाग दीए, लब्धराशिमात्र आत्मा के प्रदेश नि विर्षे तिष्ठते सर्व विस्रसोपचय परमाणूनि का प्रमाण जानना । बहुरि इस विस्रसोपचय परमाणूनि का परिमाण विष किचिदून द्वयर्धगुणहानि गुरिणत समयप्रबद्ध मात्र कर्मनोकर्मरूप परमाणूनि का परिमाण को मिलाए, विस्रसोपचय सहित कर्म नोकर्म का सत्त्व हो है। आगै कर्म-नोकर्मनि का उत्कृष्ट सचय का स्वरूप वा स्थान वा लक्षण प्ररूप है
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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