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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका)
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टीका - जिन आत्मनि के पुण्य पापरूप कर्म प्रकृति के वध की उपजावन हारे शुभरूप वा अशुभरूप मन, वचन, काय के योग न होहि ते अयोगी जिन, चौदह्वा अंत गुणस्थानवर्ती वा गुणस्यानातीत सिद्ध भगवान जानने ।
कोऊ जानेगा कि योगनि के अभाव ते उनके बल का अभाव है । जैसे हम सारिखे जीवनि के योगनि के आश्रयभूत बल देखिए है।
तहा कहिए है । कैसे है-सिद्ध ? 'अनुपमानंतबलकलिताः' कहिए जिनके बल को हम सारिखे जीवनि का बल की उपमा न बने है । बहुरि केवलज्ञानवत् अक्षयानंत अविभाग प्रतिच्छेद लीए है, जैसा बल-वीर्य, जो सर्व द्रव्य-गुण-पर्याय का युगपत् ग्रहण की समर्थता, तीहि करि व्याप्त है । तीहि स्वभाव परिणए है। योगनि का बल कर्माधीन है । तातै प्रमाण लीए है, अनत नाही । परमात्मा का बल केवलज्ञानादिवत् आत्मस्वभावरूप है । तातै प्रमाण रहित अनत है; असा जानना।
आगै शरीर का कर्म अर नोकर्म भेद दिखावै हैं -
ओरालियवेगुन्विय, आहारयतेजणामकम्मुदये। चउणोकम्मसरोरा, कम्मेव य होदि कम्मइयं ॥२४४॥
औरालिकवेविकाहारकतेजोनामकर्मोदये । चतुर्नोकर्मशरीराणि, कमैव च भवति कार्मरणम् ॥२४४॥
टीका - औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजसरूप जो नामकर्म की प्रकृति तिनके उदय ते जे ए औदारिक आदि च्यारि शरीर होइ, ते नोकर्म शारीर जानने । नो शब्द का दोय अर्थ है, एक तौ निषेधरूप अर एक ईषत् स्तोकरूप । सो इहा कार्माण की ज्यो ए च्यारि शरीर आत्मा के गुण को घात नाही वा गत्यादिकरूप पराधीन न करि सके । तातै कर्म ते विपरीत लक्षण धरने करि इनिकी अकर्म शरीर कहिए । वा कर्म शरीर के ए सहकारी है । तातै ईषत् कर्म शरीर कहिए । असे इनिको नोकर्म शरीर कहै । जैसे मन को नो-इद्रिय कहिए है; तसे नोकर्म जानने । बहुरि कार्माण शरीर नामा नामकर्म के उदय ते ज्ञानावरणादिक कर्म स्कधरूप कर्म, सोई कर्म शरीर जानना ।