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सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
[ ३२६ में छेहा जैसे दाड्यौ वा नारंगी विष हो है । बहुरि पर्व, गांठि जैसे साठा विष हो है, सो कच्ची अवस्था विर्षे जाकै ए बाह्य दीखे नाही, ऐसा वनस्पती बहुरि समभंग कहिए जाका टूक ग्रहण कीजिये, तो कोऊ तातू लगा न रहै, समान बराबरि टूटे असा । बहुरि अहीरुहं कहिए जाके विषै सूत सारिखा तातू न होइ असा । बहुरि छिन्नरुहं कहिए जो काट्या हुवा ऊगै असा वनस्पती सो साधारण है । इहा प्रतिष्ठित प्रत्येक साधारण जीवनि करि आश्रित की उपचार करि साधारण कह्या है । बहुरि तद्विपरीतं कहिये पूर्वोक्त गूढ, सिरा आदि लक्षण रहित नालियर, प्रामादि शरीर अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर जानना । गाथा विष कह्या है जो चकार सो इस भेद कौं सूचै है।
मूले कंदे छल्ली, पवाल सालदलकुसुम फलबीजे । समभंगे सदि शंता, असमे सदि होंति पत्तेया ॥१८॥
मूले कदे त्वक्प्रवालशालादलकुसुमफलबीजे ।
समभंगे सति नांता, असमे सति भवंति प्रत्येकाः ॥१८९॥ टीका - मूल कहिये जड़, कद कहिये पेड़, छल्ली कहिए छालि, प्रवाल कहिए कोपल, अकुरा; शाला कहिए छोटी डाहली, शाखा कहिए बडी डाहली, दल कहिए पान, कुसुम कहिए फूल, फल कहिए फल, बीज कहिये जातै फेरि उपजै, सो बीज; सो ए समभग होइ, तो अनत कहिए; अनतकायरूप प्रतिष्ठित प्रत्येक है । बहुरि जो मूल आदि वनस्पती समभग न होइ, सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है । जीहि वनस्पति का मूल, कंद, छाल इत्यादिक समभग होइ, सो प्रतिष्ठित प्रत्येक है । अर जाका समभग न होइ सो अप्रतिष्ठित प्रत्येक है। तोड्या थका तांतू कोई लग्या न रहै, बराबरि टूटै, सो समभंग कहिए'।
कंदस्स व मूलस्स व, सालाखंदस्स वावि बहुलतरी। छल्ली साणंतजिया, पत्तेयजिया तु तणुकदरी ॥१६॥ कंदस्य वा मूलस्य वा, शालात्कंधस्य वापि बहुलतरी।
त्वक् सा अनंतजीवा, प्रत्येकजीवास्तु तनुकतरी ॥१९०॥
टीका - जिस वनस्पती का कद की वा मूल की वा क्षुद्र शाखा की वा स्कंध को छालि मोटो हाइ, सो अनतकाय है। निगोद जीव सहित प्रतिष्ठित प्रत्येक