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गत्युदयजपर्यायः, चतुर्गतिगमनस्य हेतुर्वा हि गतिः । नारकतिर्यग्मानुषदेवगतिरिति च भवेत् चतुर्धा ॥ १४६॥
गम्यते कहिये गमन करिए, सो गति है ।
[ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १४६
इहां तर्क - जो ऐसे कहें गमन क्रियारूप परिणया जीव को पावने योग्य द्रव्यादिक को भी गति कहना संभवे ।
तहां समाधान - जो ऐसे नाही है, जो गतिनामा नामकर्म के उदय तं जो जीव के पर्याय उत्पन्न होड़, तिसही कौं गति कहिए । सो गति च्यारि प्रकार १. नाक गति २. तिर्यंच गति ३. मनुष्यगति ४. देव गति ए च्यारि गति हैं ।
या नारक गति को निर्देश कर हैं
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ण रमंति जदो णिच्चं, दव्वे खेत्ते य काल - भावे य । अण्णोहिय जह्मा, तह्मा ते खारया भरिया । । १ १४७ ॥
नरमंते यतो नित्यं द्रव्य क्षेत्रे च कालभावे च ।
अन्योन्यैश्व यस्मात्तस्मात्ते नारता (का) भरिणताः ॥ १४७ ॥
टीका - जा कारण ते जे जीव द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव विपे अथवा परस्पर में रमे नाही - जहां क्रीडा न करें, तहा नरक संवत्री ग्रन्न-पानादिक वस्तु, सो द्रव्य कहिए । बहुरि तहांकी पृथ्वी सो क्षेत्र कहिए । बहुरि तिस गति संबंधी प्रथम समय तें लगाइ अपनी आयु पर्यंत जो काल, सो काल कहिए । तिनि जीवनी के चैतन्यरूप परिणाम, सी भाव कहिए । इनि च्यारोंनि विषै जे कहूं रति न मानें । वहुरि अन्य भव संबंधी बंर करि इस भव में उपजे कोवादिक, तिनिरि नवीन - पुराणे नारकी परस्पर रमे नाहि है 'रति कहिए प्रीतिरूप कब ही तातें 'न रताः' कहिए नरत, तेई 'नारत' जानने । जातें स्वार्थ विषै ऋण प्रत्यय का विवान है, तिनकी जो गति, सो नारतगति जानना ।
वा नरकविपै उपजे ते नारक, तिनिकी जो गति, सो नारक गति जाननी । अथवा हिमादित्र ग्राचरण विपं निरता कहिए प्रवत, असे जो निरत, तिनकी जो गति, सो निम्नगति जाननी ी, तिनिर्को कायति कहिए पीडे दुःख देइ, ५॥ नरह