________________
[ गोम्मटमार जीव कागड गाथा १२४.१२॥ २७२ ]
त्रीणि शतानि षट्त्रिंशत्, षट्षष्टिसहस्कानि मरणानि ।
अंतर्मुहूर्तकाले, तावंतश्चेव क्षुद्रभवाः ॥ १२३ ॥ टीका - क्षुद्रभव कहिए लब्धि अपर्याप्तक जीव, तिनिकी जो वीचि विर्षे पर्याप्तिपनी विना पाया निरतरपने उत्कृष्ट होड, तौ अंतर्मुहूर्त काल विप छ्यासठि हजार तीन सौ छत्तीस (६६३३६) मरण होंड; बहुरि इतने ही भव कहिए जन्म होइ।
आगे ते जन्म-मरण एकेद्रियादि जीवनि के केते-केते सभवै अर तिनिके काल का प्रमाण कहा ? सो विशेष कहिए है -
सीदी सट्ठी तालं, वियले चउवीस होंति पच्चक्खे । छाव िच सहस्सा, सयं च बत्तीसमयक्खे ॥१२४॥
अशीतिः षष्टि चत्वारिंशत्, विकले चतुर्विशतिर्भवंति पंचाक्षे ।
षष्टिश्च सहसारिण, शतं च द्वात्रिंशमेकाक्षे ॥ १२४ ॥ टीका - पूर्व कहे थे लब्धि अपर्याप्तकनि के निरंतर क्षुद्रभव, तिनिविर्षे एकेद्रियनि के छयासठि हजार एक सौ वत्तीस निरतर क्षुद्रभव हो है; सो कहिए है - कोऊ एकेद्रिय लव्धि अपर्याप्तक जीव, सो तिस क्षुद्रभव का प्रथम समय ते लगाइ सांस के अठारहवे भाग अपनी आयु प्रमाण जीय करि मरै, बहुरि एकैद्रिय भया तहां तितनी ही आयु कौ भोगि, मरि करि वहुरि एकेद्रिय होइ । असे निरंतर लब्धि अपयप्ति करि क्षुद्रभव एकेंद्रिय के उत्कृष्ट होंइ तौ छ्यासठि हजार एक सौ वत्तीस होइ, अधिक न होड । असं ही लब्धि अपर्याप्तक बेइद्रिय के असी (८०) होइ। तेइद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के साठि (६०) होइ । चौइद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के चालीस (४०) होइ । पंचेद्रिय लव्धि अपर्याप्त के चौवीस होई, तीहिविपै भी मनुप्य के पाठ (८) असैनी तिर्यच के आठ, (८) सैनी तिर्यच के पाठ(८) असे पचेद्रिय के चौवीस (२४) होड । असे लब्धि अपर्याप्तकनि का निरतर क्षुद्रभवनि का परिमाण कह्या ।
अब एकेद्रिय लब्धि अपर्याप्तक के निरन्तर क्षुद्रभव कहे, तिनकी संख्या स्वामीनि की अपेक्षा कहै है -
पुढविदगागणिमारुद, साहारणथूलसुहमपत्तेया। एदेसु अपुण्णेसु य, एक्कक्के बार खं छक्कं ॥ १२५॥