SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 226
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ "सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ] [ २६१ गर्तनि के रोमनि का प्रमाण । तहा फल करि इच्छा को गुणि प्रमाण का भाग दीए समयनि का प्रमाण आवै । बहुरि पूर्वोक्त अपना-अपना समयनि का प्रमाणकरि एक पल्य-होय, तौ इतने इहां समय भए, तिनके केते पल्य होय? असे त्रैराशिक कीए, दश कोडाकोडि पल्यनि का प्रमाण हो है । तातै दश कोडाकोडि पल्यनि के समह का नाम सागर कह्या है । बहुरि अद्धा पल्य का अर्धच्छेद राशि का विरलन करि एक-एक करि बखेरि एक-एक रूप प्रति अद्धा पल्य को देइ परस्पर गुणन कीए सूच्यंगुल उपजै है । एक प्रमाणांगुल का प्रमाण लंबा, एक प्रदेश प्रमाण चौड़ा-ऊचा क्षेत्र का इतने प्रदेश जानने । जैसे पल्य का प्रमाण सोलह, ताके अर्धच्छेद च्यारि, तिनिका विरलन करि।१।१।१।१। एक-एक प्रति-प्रति पल्य सोलह कों देइ, १६ । १६ । १६ । १६ । परस्पर गुणे पणट्ठी प्रमाण (६५५३६) होइ, तैसे इहां जानना । बहुरि सूच्यंगुल का जो वर्ग सो प्रतरागुल है । एक अंगुल चौडा, एक अंगुल लम्बा, एक प्रदेश ऊंचा क्षेत्र का इतना प्रदेशनि का प्रमाण है। जैसे पणट्टी को पगट्ठी करि गुरणे बादाल होइ, तैसे इहा सूच्यंगुल को सूच्यंगुल करि गुणे प्रतरांगुल हो है । बहुरि सूच्यंगुल का घन, सो घनांगुल है। एक अंगुल चौडा, एक अंगुल लम्बा, एक अंगुल ऊंचा क्षेत्र का इतना प्रदेशनि का प्रमाण है । जैसे बादाल को पणट्ठी करि गुणै पगट्ठी का घन होई, तैसे प्रतरांगुल को सूच्यंगुल करि गुणै घनांगुल हो है । बहुरि अद्धापल्य के जेते अर्धच्छेद, तिनिका असंख्यातवा भाग का जो प्रमाण, ताकौ विरलनि करि एकएक प्रति घनांगुल देय परस्पर गुण जगत्श्रेणी उपज है। क्षेत्रखंडन विधान करि हीनाधिक को समान कीये, लोक का लम्बा श्रेणीबद्ध प्रदेशनि का प्रमाण इतना है । जातै जगत्त्रेणी का सातवां भाग राजू है । सात राजू का घनप्रमाण लोक है । जैसे पल्य का अर्धच्छेद च्यारि, ताका असंख्यातवां भाग दोय, सो दोय जायगा पगट्टी गुणा वादाल को माडि परस्पर गुण विवक्षित प्रमाण होइ, तैसे इहां भी जगत्श्रेणी का प्रमाण जानना । बहुरि जगत्श्रेणी का वर्ग, सो जगत्प्रतर है । क्षेत्रखडन विधान करि हीनाधिक समान कीए लम्बा-चौड़ा लोक के प्रदेशनि का इतना प्रमाण है। भावार्थ यह – यह जगत्श्रेणी को जगत्श्रेणी करि गुण प्रतर हो है । बहुरि जगत्श्रेणी का घन सो लोक है। लम्बा, चौड़ा, ऊंचा, सर्व लोक के प्रदेशनि का प्रमाण इतना है। भावार्थ यहु - जगत्प्रतर को जगत्श्रेणी करि गुण लोक का प्रमारण हो है।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy