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सम्यग्ज्ञानचत्रिका भाषाटोका ] ही आदि स्थान की अपेक्षा लीए वृद्धि-हानि का स्वरूप कह्या । बहुरि कही एक स्थान का प्रमाण की अपेक्षा दूसरा स्थान विष वृद्धि वा हानि कही, दूसरा स्थान का प्रमाण की अपेक्षा तीसरा स्थान विष वृद्धि वा हानि कही; असे स्थान-स्थान प्रति वृद्धि वा हानि का अनुक्रम हो है। तहां अनंत भागादिरूप वृद्धि वा हानि होइ, सो यथासंभव जाननी । बहुरि पर्यायसमास नामा श्रुतज्ञान के भेद वा कषाय स्थान इत्यादिकनि विष संभवती षट्स्थान पतित वृद्धि वा हानि के अनुक्रम का विधान प्रागै ज्ञानमार्गणा अधिकार विष लिखेंगे, सो जानना । असै वृद्धि -हानि का विधान अनुक्रम अनेक प्रकार है, सो यथासंभव है। जैसे प्रसंग पाइ षट्गुणी आदि हानिवृद्धि का वर्णन कीया।
प्रागै जिस-जिस जीवसमास के अवगाहन कहे, तिस-तिसके सर्व अवगाहन के भेदनि के प्रमाण को ल्यावै है -
हेट्ठा जेसि जहण्णं, उरि उक्कस्सयं हवे जत्थ । तत्थंतरगा सव्वे, तेसिं उग्गाहणविअप्पा ॥११२॥ अधस्तनं येषां, जघन्यमुपर्युत्कृष्टकं भवेद्यत्र ।
तत्रांतरगाः सर्वे, तेषामवगाहनविकल्पाः ॥११२॥ टीका - इहा मत्स्यरचना को मन विष विचारि यहु कहिये है - जो जिन ' अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण थोरा होइ, ते अधस्तन स्थान है । बहुरि जिन अवगाहना स्थाननि का प्रदेश प्रमाण बहुत होइ, ते उपरितन स्थान है, ऐसा कहिये है । सो जिन जीवनि का जघन्य अवगाहना स्थान तो नीचे तिष्ठ पर जहां उत्कृष्ट अवगाहना स्थान ऊपरि तिष्ठ, तिनि दोऊनि का अतराल विषै वर्तमान सर्व ही अवगाहना के स्थान तिन जीवनि के मध्य अवगाहना स्थान के भेदरूप है - ऐसा सिद्धात विष प्रतिपादन कीया है ।
भावार्थ - पूर्वं अवगाहन के स्थान कहे, तिनि विर्ष जिसका जघन्य स्थान जहा कह्या होड, तहातै लगाइ एक-एक प्रदेश की वृद्धि का अनुक्रम लीए जहा तिस ही का उत्कृष्ट स्थान कह्या होइ, तहा पर्यत जेते भेद होंइ, ते सर्व ही भेद तिस जीव की अवगाहना के जानने । तहां सूक्ष्म निगोद लब्धि अपर्याप्त का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो जघन्य स्थान, सो तो आदि जानना । बहुरि इस ही का पूर्वोक्त प्रमाणरूप जो