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| गोम्मटसार जीवकाण्ड गाथा १११ टीका - एवं कहिए इस ही प्रकार जैसे सूक्ष्म निगोद लव्धि अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान की प्रादि देकरि मूक्ष्म लव्धि अपर्याप्त वायुकायिक जीव का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त पूर्वोक्त प्रकार चतुःस्थान पतित प्रदेश वृद्धि का अनुक्रम विधान कह्या, तैसें ऊपरि भी सूक्ष्म लब्धि अपर्याप्तक तेजकाय का जघन्य अवगाहन तै लगाइ दीद्रिय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यन्त जीवसमास का अवगाहना स्थानकनि का अंतरालनि विष प्रत्येक जुदा-जुदा चतु.स्थान पतित वृद्धि का अनुकम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुणकार की उत्पत्ति का विवान जानना ।
__भावार्थ ~ जैसे सूक्ष्मनिगोद लव्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान पर मूक्ष्म वायुकायिक लन्धि अपर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान के वीचि अंतराल पि चनु.स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान कह्या । तैसे ही सूक्ष्म वायुकायिक लब्धि अपर्याप्त अर भूक्ष्म तेज.कायिक लव्धि अपर्याप्तकनि का अंतराल विप वा अंस ही हीद्रिय पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान पर्यंत अगिले अतरालनि विपै चतु:स्थान पतित वृद्धि का अनुक्रम विधान जानना । विशेप इतना -तहां आदि अवगाहन स्थान का वा भाग वृद्धि, गुण वृद्धि विर्षे असंख्यात का प्रमाण वा अनुक्रम वा स्थानकनि का प्रमाण इत्यादि यथासंभव जानने ।
वहरि तने ही ताके आग तेइंद्री पर्याप्त का जघन्य अवगाहन स्थान आदि देरि मनी पंवेद्री पर्याप्त का उत्कृष्ट अवगाहन पर्यंत अवगाहन स्थानकनि का एकएक अंतराल विपं असंख्यात गुण वृद्धि विना त्रिस्थान पतित प्रदेशनि की वृद्धि का अनुक्रम करि प्राप्त होइ यथायोग्य गुणकार की उत्पत्ति का विधान जानना।
भावार्थ - इहां पूर्वस्थान ते अगिला स्थान संख्यात गुणा ही है । तातै तहां अनन्नात गुण वृद्धि न सभव है, त्रिस्थान पतित वृद्धि ही संभव है । इहां भी विशेष इतना - जो आदि अवगाहना स्थान का वा भाग वृद्धि विर्षे असंख्यात का वा गुण वृद्धि विध मंन्यात का प्रमाण वा अनुक्रम वा स्थानकनि का प्रमाण इत्यादिक यथासंभव जानने । ऐने इहा प्रसंग पाइ चतुःस्थान पतित वृद्धि का वर्णन कीया है ।
वहरि रही पस्यान पतित, कही पंचस्थान पतित, कही चतु.स्थान पतित, नाही मिथान पतिल, कहीं हिस्थान पतित, कही एकस्थान पतित वृद्धि संभव है। पाया वहीं रोने ही हानि नभव है, तहां भी ऐसे ही विधान जानना । तहां जाका
मा जो विवक्षित, नाक आदि स्थान के प्रमाण ते अगले स्थान विर्षे