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________________ २८ 5 [ गोम्मटसार जौवकाण्डं गाया १०९ अवरपरितासंखेणवरं संगुणिय रूवपरिहीणे । तच्चरिमो रूजुदे, त िश्रसंखेज्जगुणपढमं ॥ १०६ ॥ अवरपरीतासंख्येनावरं संगुण्य रूपपरिहीने । तच्चरमो रूपयुते, तस्मिन् श्रसंख्यातगुणप्रथमम् ॥१०९॥ टोका जघन्य परीता असंख्यात करि जघन्य अवगाहना कौं गुणि, तामै एक घटाए जो प्रमाण होइ, तितने प्रदेशरूप तिस प्रवक्तव्य गुरण वृद्धि का अंत अवगाहना स्थान हो है । ए अवक्तव्य गुण वृद्धि के स्थान केते है ? सो कहिए है पूर्ववत् 'आदी अंते सुद्धे' इत्यादि सूत्र करि याका आदि को अंत विषै घटाए, अवशेष की वृद्धि एक का भाग देइ एक जोड़ें, जितने होंइ तितने हैं । बहुरि इहां प्रवक्तव्य गुण वृद्धि का स्वरूप अंकसंदृष्टि करि अवलोकिए हैं । जैसे जघन्य ग्रवगाहना का प्रमाण सोलह (१६), एक घाटि जघन्य परीता असंख्यात प्रमाण जो उत्कृप्ट संख्यात, ताका प्रमाण तीन, ताकरि जघन्य को गुणै अडतालीस होंइ । बहुरि जघन्य परिमित संख्यात का प्रमाण च्यारि, ताकरि जघन्य कों गुणे चौसठि होंइ, इनिके वीचि जे भेद, ते प्रवक्तव्य गुरण वृद्धि के स्थान है । जातें इनि को संख्यात वा - सन्यात गुण वृद्धि रूप कहे न जाइ, तहां जघन्य अवगाहन सोलह को एक घाटि परोता संख्यात तीन करि गुरौ अडतालीस होंइ, तामें एक जोडें अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान हो है । याकौ जघन्य अवगाहन सोलह का भाग दीए पाया गुरणचास का सोलहवा भाग प्रमाण अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम स्थान ल्यावने को गुरणकार हो हुँ । याकरि जघन्य अवगाहन को गुणि अपवर्तन कीए अवक्तव्य गुण वृद्धि का प्रथम अवगाहन स्थान गुरणचास प्रदेश प्रमाण हो है । अथवा अवक्तव्य गुरण वृद्धि का प्रथम स्थान एक अविक तिगुणां सोलह, ताकौ जघन्य अवगाहना सोलह, ताका भाग ढेड पाया एक सोलहवा भाग अधिक तीन, ताकरि जघन्य अवगाहन सोलह की गुर्गे गुणचान पाए, तितने ही प्रदेश प्रमाण अवक्तव्य गुरण वृद्धि का प्रथम वाहन स्थान ही है । जैसे अन्य उत्तरोत्तर भेदनि विषे भी गुरणकार का अनुक्रम ज्ञानना । ता अवक्तव्य गुण वृद्धि का अंत का अवगाहना स्थान, सो जघन्य प्रवगा - इन सोलह की जघन्य परिमिता संख्यात च्यारि करि गुणें जो पाया, तामें एक तम होड, सो इतने प्रदेश प्रमाण है । वहुरि याकौ जघन्य अवगाहन गोर भाग दे पाया तरेसठ का सोलहवां भाग, सोई अवक्तव्य गुण वृद्धि का
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
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