SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 180
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २० ] [ गोम्मटसार जीवकाण्ड गाया १०१ नव वार कह्या था, तामैं एक वार आवली का असख्यातवा भाग मदृश देखि दोऊनि का अपवर्तन कोए, पूर्वे जहां नव वार कह्या था, तहां इहां आठ बार आवली का असंख्यातवां भाग का भागहार जानना । जैसे ही आगे भी गुणकार भागहार की समान देखि, तिनि दोऊनि का अपवर्तन करना । वहुरि यातें सूक्ष्म अपर्याप्त तेजस्कायिक की जघन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्वोक्त प्रकार अपवर्तन कीए आठ वार की जायगा सात बार पावली का असंख्यात भाग का भागहार हो है । वहुरि यात सूक्ष्म अपर्याप्त अप्कायिक का जघन्य अवगाहना स्थान आवली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां पूर्ववत् अपवर्तन करना । बहुरि यात सूक्ष्म अपर्याप्त पृथ्वीकायिक का जघन्य अवगाहना स्थान प्रावली का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्ववत् अपवर्तन करना । जैसे इहां प्रावली का असख्यातवां भाग का भागहार तो पांच वार रह्या, अन्य सर्व गुणकार भागहार पूर्ववत् जानने । वहुरि इहां पर्यंत सूक्ष्म ते सूक्ष्म का गुणकार भया, तातै स्वस्थान गुणकार कहिए है । अव सूक्ष्म ते वादर का गुणकार कहिए है, सो यहु परस्थान गुणकार जानना । प्रागै भी सूक्ष्म ते वादर, वादर ते सूक्ष्म का जहां गुणकार होइ, सो परस्थान गुणकार है; जैसा विशेप जानना । बहुरि इस सूक्ष्म अपर्याप्त पृथिवीकायिक का जघन्य अवगाहन स्थान ते स्वस्थान गुणकार की उलंधि परस्थानल्प वार अपर्याप्त वातकायिक का जघन्य अवगाहना स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां इस गुणकार करि उगणीस बार पल्य का असंख्यातवां भाग का भागहार था, तामें एक वार का अपवर्तन करना । बहुरि यातें वादर तेजःकायिक अपर्याप्तक का जघन्य अवगाहना स्थान पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा है । इहां भी पूर्ववत् अपवर्तन करना । जैसे ही पल्य का असंख्यातवां भाग गुणा अनुक्रम करि अपर्याप्त वादर, अप, पृथ्वी, निगोद, प्रतिष्ठित प्रत्येकनि के जवन्य अवगाहना स्थान, अर अपर्याप्त अप्रतिष्ठित प्रत्येक, वेद्री, तेद्री, चौइंद्री पञ्त्री, के जघन्य अवगाहना स्थान, इन नव स्थानकनि की प्राप्त करि पूर्ववत् अपवर्तन करने अपर्याप्त पंचेंद्रिय का जघन्य अवगाहना स्थान विपै आठ वार पल्य का असंन्यातवां भाग का भागहार रहै हैं । अन्य भागहार गुणकार पूर्ववत् जानना । बहरि याने मूदम निगोद पर्याप्त का जघन्य अवगाहना स्थान, सो परस्थानरूप प्रावनी का असंन्यातवां भाग गुणा है । सो पूर्व प्रावली का असंख्यातवां भाग का भागहार पांच बार रहा था, तामें एक वार करि इस गणकार का अपवर्तन करना ।
SR No.010074
Book TitleSamyag Gyan Charitra 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashpal Jain
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1989
Total Pages716
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size35 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy