________________
सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका भाषाटीका ]
११७
राष्ट्रकथालापी कह्या, सो याके परै एक भेद अवनिपाल कथा है, या अनकित स्थान एक घटाएं, पंद्रह रहै, सोई पूछया था, ताका उत्तर औसा - जो राष्ट्रकथालापीलोभी- स्पर्शन इंद्रिय के वशीभूत - निद्रालु - स्नेहवान, असा आलाप पंद्रहवां है । सो यहु विधान दूसरा प्रस्तार की अपेक्षा जानना ।
बहुरि प्रथम प्रस्तार अपेक्षा नीचे ते अनुक्रम जानना ।
J
तहां उदाहरण कहिए है - स्नेहवान - निद्रालु श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत - मायावी - स्रीकथालापी, भैसा आलाप केथवां है ?
तहां एक रूप स्थापि, प्रथम प्रस्तार अपेक्षा ऊपरि का प्रमाद विकथा, ताका प्रमाण च्यारि करि गुणै, च्यारि भए, सो इहा स्त्रीकथालापी ग्रह्या, सो याकै परै तीन भेद है । तातै अनंकित स्थान तीन घटाएं, अवशेष एक रह्या, ताकौ कषाय प्रमाद च्यारि करि गुणै, च्यारि भए, सो इहा मायावी ग्रह्या, ताकै परे एक लोभ अनकित स्थान है, ताकौ घटाएं तीन रहे, याकौ इद्रिय प्रमाद पाच करि गुणै, पद्रह भए, सो इहां श्रोत्र इद्रिय का ग्रहण है । ताके परे कोऊ भेद नाही, तातै अनंकित स्थान का अभाव है । इस हेतु ते शून्य घटाए भी पंद्रह ही रहै । जैसे स्नेहवान - निद्रालु श्रोत्र इंद्रिय के वशीभूत-मायावी - स्त्री कथालापी, ऐसा आलाप पद्रहवा है । याही प्रकार विवक्षित प्रमाद का आलाप की सख्या हो है, ऐसे प्रक्ष धरि सख्या का ल्यावना, सो उद्दिष्ट सर्वत्र साधै ।
आगै प्रथम प्रस्तार का प्रक्षसंचार को आश्रय करि नष्ट, उद्दिष्ट का गूढ यत्र कहै है -
इगिबितिचरणखपणदसपण्गरसं खवीसतालसठ्ठी य । संठविय पमदठाणे, गट्ठद्दट्ठे च जारण तिट्ठाणे ॥ ४३ ॥
एकद्वित्रिचतुः पंचपंचदशपंचदशख विंशच्चत्वारिंशत्षष्टीश्च । संस्थाप्य प्रमाद स्थाने, नष्टोद्दिष्टे च जानीहि त्रिस्थाने ||४३||
टीका - प्रमादस्थानकनि विषे इद्रियनि के पंच कोठानि विषे क्रम ते एक, दोय, तीन, च्यारि, पांच इन अंकनि कौ स्थापि; कषायनि के च्यारि कोठानि विषे क्रम तै बिदी, पांच, दश, पंद्रह इन अंकनि को स्थापि; तैसे विकथानि के च्यारि कोठानि विषै क्रम तै बिदी, बीस, चालीस, साठि इनि अंकनि कौ स्थापि; निद्रा,