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जननी जननः अपि कान्ता गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यम् । मायाजालमपि आत्मीयं मूढः मन्यते सर्वम् ||८३ ||
आगे फिर भी मूढके लक्षण कहते हैं - ( जननी) माता ( जननः ) पिता (अपि) और (कांता) स्त्री (गृह) घर (पुत्रः अपि ) और बेटा बेटी (मित्रमपि ) मित्र वगैरह सब कुटुम्बीजन बहिन भानजी नाना मामा भाई बन्धु और ( द्रव्यं ) रत्न माणिक मोती सुवर्ण चांदी धन धान्य, द्विपदवांदी धाय नौकर चौपाये - गाय बैल घोड़ी ऊंट हाथी रथ पालकी वहली, ये (सर्व) सर्व ( मायाजालमपि ) असत्य हैं, कर्मजनित हैं, तो भी ( मूढः ) अज्ञानी जीव (आत्मीयं ) अपने (सन्यते) मानता है ।
भावार्थ - ये माता पिता आदि सब कुटुम्बीजन परस्वरूप भी हैं, सब स्वारथके हैं, शुद्धात्मासे भिन्न भी हैं शरीर सम्बन्धी हैं, हेयरूप सांसारिक नारकादि दु:खोंके कारण होनेसे त्याज्य भी हैं, उनको जो जीव साक्षात् उपादेयरूप अनाकुलता स्वरूप परमार्थिक सुखसे अभिन्न वीतराग परमानन्दरूप एकस्वभाववाले शुद्धात्मद्रव्य में लगाता है, अर्थात् अपने मानता है, वह मन वचन कायरूप परिणत हुआ शुद्ध अपने आत्मद्रव्यकी भावनासे शून्य ( रहित ) मूढात्मा है, ऐसा जानो, अर्थात् अतीन्द्रियसुखरूप आत्मामें परवस्तुका क्या प्रयोजन है । जो परवस्तुको अपना मानता है, वही मूर्ख है
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अथ -
दुक्खहं कारण जे विसय ते सुह- हेउ रमेइ ।
मिच्छाइट्टिउ जीवडउ इत्थु ण काई करेइ ||८४ ॥
दुःखस्य कारणं ये विषयाः तान् सुखहेतून रमते । मिथ्यादृष्टिः जीवः अत्र न किं करोति ॥ ८४ ॥
अब और भी मूढका लक्षण कहते हैं - ( दुःखस्य) दुःखके ( कारणं) कारण ( ये ) जो ( विषयाः) पांच इन्द्रियोंके विषय हैं, (तान् ) उनको ( सुख हेतून् ) सुखके कारण जानकर (रमते) रमण करता है, वह (मिथ्यादृष्टिः जीवः) मिथ्यादृष्टि जीव (अत्र ) इस संसार में (किं न करोति) क्या पाप नहीं करता ? सभी पाप करता है, अर्थात् जीवों की हिंसा करता है, झूठ बोलता है, दूसरेका धन हरता है, दूसरेकी स्त्री सेवन करता है, अति तृष्णा करता है, बहुत आरम्भ करता है, खेती करता है, खोटे खोटे व्यसन सेवता है, जो न करने के काम हैं, उनको भी करता है ।