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इस प्रकार शरीरके भावोंको मूर्ख अपने मानता है । सो ये सब शरीर के हैं, आत्मा नहीं हैं |
भावार्थ - यहां पर ऐसा है कि निश्चयनय ये ब्राह्मणादि भेद कर्मजनित है, परमात्मा के नहीं हैं, इसलिये सब तरह आत्मज्ञानीके त्याज्यरूप हैं तो भी जो नित्रयनयकर आराधने योग्य वीतराग सदा आनन्दस्वभाव निज शुद्धात्मामें इन भेदोंको लगाता है, अर्थात् अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, मानता है, स्त्री, पुरुष, नपुंसक, मानता है, वह कर्मोंका वध करता है, वही अज्ञानसे परिणत हुआ निज शुद्धात्म तत्वको भावनासे रहित हुआ मूढात्मा है, ज्ञानवान् नहीं है ॥८१॥
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अथ
तरुणउ बूढउ रूपडउ सूरउ पंडिउ दिव्वु ।
खवरण बंदउ सेवडउ मूढउ मगणड़ सब्बु ||२||
तरुणः वृद्धः रूपवान् शूरः पण्डितः दिव्यः ।
क्षपणकः वन्दकः श्वेतपट: मूढः मन्यते सर्वम् ||८२||
आगे फिर मूढके लक्षण कहते हैं - (तरुणः ) मैं जवान हूँ, (वृद्धः) बुड्ढा है, (रूपस्वी) रूपवान हैं, ( शूरः) शूरवीर हैं (पंडित) पण्डित हैं, (दिव्यः) सबमें श्रेष्ठ है, ( क्षपणक :) दिगम्बर हूँ, (वंदक :) बौद्धमतका आचार्य हूँ, (श्वेतपट :) और में श्वेताम्बर हूँ, इत्यादि (सर्व) सव शरीर के भेदोंको (मूढः) मूर्ख ( मन्यते ) अपने मानता है । ये भेद जीवके नहीं हैं |
भावार्थ - यहां पर यह है, कि यद्यपि व्यवहारनयकर ये सब तरुण वृद्धादि शरीरके भेद आत्माके कहे जाते हैं, तो निश्चयनयकर वीतराग सहजानंद एक स्वभाव जो परमात्मा उससे भिन्न हैं । ये तरुणादि विभावपर्याय कर्मके उदयकर उत्पन्न हुए हैं, इसलिये त्यागने योग्य हैं, तो भी उनको साक्षात् उपादेयरूप निज शुद्धात्म तत्वमें जो-जो लगाता है, अर्थात् आत्मा के मानता है, वह अज्ञानी जीव बड़ाई प्रतिष्ठा धनका लाभ इत्यादि विभाव परिणामोंके आधीन होकर परमात्माकी भावनाएं रहित हुआ महात्मा है, वह जीवके ही भाव मानता है ||२||
अथ
जागी जाणु वि कंत घम पत्तु वि मित्तु विदव्वु । माया-जालु विप्पण्ड मूडउ मगणइ सब्बु ||३||