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यह आत्मा (पङ्गोः अनुहरति) पंगुके समान है, (आत्मा) आप (न याति) न कहीं जाता है, (न आयाति) न आता है (भुवनत्रयस्य अपि मध्ये) तीनों लोक में इस जीवको (विधिः) कर्म ही (नयति) ले जाता है, (विधिः) कर्म ही (आनयति) ले आता ।
भावार्थ-यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयसे अनन्तवीर्य (बल) का धारण करने वाला होनेसे शुभ अशुभ कर्मरूप बन्धनसे रहित है, तो भी व्यवहारनयसे इस अनादि संसारमें निज शुद्धात्माकी भावनासे विमुख जो मन, वचन, काय इन तीनोंसे उपार्जे कर्मोंकर उत्पन्न हुए पुण्य-पापरूप बंधनोंकर अच्छी तरह बंधा हुआ पंगुके समान आप न कहीं जाता है न कहीं आता है। जैसे बन्दीवान आपसे न कहीं जाता है और न कहीं आता है, चौकीदारोंकर ले जाया जाता है, और आता है, आप तो पंगुके समान है। वही आत्मा परमात्माकी प्राप्तिके रोकनेवाले चतुर्गतिरूप संसारके कारणस्वरूप कर्मोकर तीन जगत्में गमन-आगमन करता है, एक गतिसे दूसरी गतिमें जाता है । यहां सारांश यह है, कि वीतराग परम आनंदरूप तथा सब तरह उपादेयरूप परमात्मासे (अपने स्वरूपसे) भिन्न जो शुभ अशुभ कर्म हैं, वे त्यागने योग्य हैं ।।६६।।
अथ ऊर्ध्वं भेदाभेदभावनामुख्यतया पृथक् पृथक् स्वतन्त्रसूत्रनवकं कथयतिअप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ । परु जि कयाइ वि अप्पु णवि णियमें पभणहिं जोई॥६७॥ आत्मा आत्मा एव परः एव परः आत्मा परः एव न भवति । पर एव कदाचिदपि आत्मा नैव नियमेन प्रभणन्ति योगिनः ।।६७।।
इस प्रकार कर्मकी शक्तिके स्वरूपके कहनेकी मुख्यतासे आठवें स्थल में आठ दोहे कहे। इससे आगे भेदाभेदरत्नत्रयकी भावनाको मुख्यतासे जुदे-जुदे स्वतन्त्र नौ सूत्र कहते हैं-(आत्मा) निजवस्तु (आत्मा एव) आत्मा ही है, (परः) देहादि पदार्थ (पर एव) पर ही हैं, (आत्मा) आत्मा तो (परः न एव) परद्रव्य नहीं (भवति) होता, (पर एव) और परद्रव्य भी (कदाचिदपि) कभी (प्रात्मा नैव) आत्मा नहीं होता, ऐसा (नियमन) निश्चयकर (योगिनः) योगीश्वर (प्रभणंति) कहते हैं ।
। भावार्थ-शुद्धात्मा तो केवलज्ञानादि स्वभाव है, जड़रूप नहीं है, उपाधिरूप - नहीं है, शुद्धात्मस्वरूप ही है । पर जो काम-क्रोधादि परवस्तु भावकर्म द्रव्यकर्म नोकर्म हैं, . वे पर ही हैं, अपने नहीं हैं, जो यह आत्मा संसार अवस्थामें यद्यपि अशुद्धनिश्चयनयकर