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[ ६० ] शुद्धपारिणामिक परमभावके ग्रहण करनेवाले शुद्धनिश्चयनयसे नहीं करता है, बन्ध और मोक्षसे रहित है, ऐसा भगवान्ने कहा है। यहां जो शुद्धनिश्चयनयकर बन्ध और मोक्षका कर्ता नहीं, वहीं शुद्धात्मा आराधने योग्य है ।।६।।
अथ स्थलसंख्याबाह्यं प्रक्षेपकं कथयतिसो णत्थि ति पएसो चउरासी-जोणि-लक्ख-मज्झम्मि । जिण-वयणं ण लहंतो जत्थ ण डुलुडुल्लिो जीवो ॥६५१॥
स नास्ति इति प्रदेश: चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये । जिनवचनं न लभमानः यत्र न भ्रमितः जीवः जावः ।।६५*१।।
आगे दोहा-सूत्रोंकी स्थल-संख्यासे बाहर उक्तं च स्वरूप प्रक्षेपकको कहते हैं(अत्र ? ) इस जगत्में (स [क: अपि]) ऐसा कोई भी (प्रदेशः नास्ति) प्रदेश (स्थान) नहीं है, कि (यत्र) जिस जगह (चतुरशीतियोनिलक्षमध्ये) चौरासी लाख योनियों में होकर (जिनवचनं न लभमानः) जिन-वचनको नहीं प्राप्त करता हुआ (जीवः) यह जीव (न भ्रमितः) नहीं भटका।
____ भावार्थ-इस जगत् में कोई ऐसा स्थान नहीं रहा, जहांपर यह जीव निश्चय व्यवहार रत्नत्रयको कहनेवाले जिन-वचनको नहीं पाता हआ अनादि कालसे चौरासी लाख योनियों में होकर न घूमा हो, अर्थात् जिन-वचनकी प्रतीति न करनेसे सब जगह
और सब योनियोंमें भ्रमण किया, जन्म-मरण किये । यहां यह तात्पर्य है, कि जिनवचनके न पानेसे यह जीव जगत् में भ्रमा, इसलिये जिन-वचन ही आराधने योग्य है ।।६५*१॥
अथात्मा पंगुवत् स्वयं न याति न चैति कमैंव नयत्यानयति चेति कथयति
अप्पा पंगुह अणुहरइ अप्पु ण जाइ ण एइ। भुवणत्तयहं वि मन्झि जिय विहि आणइ विहिणेइ ॥६६॥
आत्मा पङ्गोः अनुहरति आत्मा न याति न आयाति ।
भुवनत्रयस्य अपि मध्ये जीव विधिः आनयति विधिः नयति ।।६६।।। __ आगे आत्मा पंगु (लंगड़े) की तरह आप न तो कहीं जाता है, और न आता है, कर्म ही इसको ले जाते हैं, और ले आते हैं, ऐसा कहते हैं-(जीव) हे जीव, (आत्मा)
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