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[ ४० ] भावार्थ-शुद्धात्मासे जुदी ऐसी देहमें बसते आत्म-ज्ञानके अभावसे ये इन्द्रियां अपने-अपने विषयों में (रूपादिमें) प्रवर्तती हैं, और जिसके चले जानेपर अपने अपने विषय-व्यापारसे रुक जाती हैं, ऐसा चिदानन्द निज आत्मा वही परमात्मा है। अतिन्द्रियसुखके आस्वादी परमसमाधिमें लीन हुए मुनियोंको ऐसे परमात्माका ध्यान ही मुक्तिका कारण है, वही अतीन्द्रिय सुखका साधक होनेसे सब तरह उपादेय है ।।४४॥
__ अथ यः पञ्चेन्द्रियैः पञ्चविषयान् जानाति स च तैर्न ज्ञायते स परमात्मा भवतीति निरूपयति
जो णिय-करणहि-पंचहिं वि पंच वि विसय मुणेइ । मुणिउ ण पंचहिं पंचहि वि सो परमप्पु हवेइ ॥४५॥
यः निजकरणैः पञ्चभिरपि पञ्चापि विषयान् जानाति ।
ज्ञातः न पञ्चभिः पञ्चभिरपि स परमात्मा भवति ॥४५॥ .
आगे जो पांच इन्द्रियोंसे पांच विषयोंको जानता है, और आप इन्द्रियोंके गोचर नहीं होता है, वही परमात्मा है, यह कहते हैं-(यः) जो आत्मारामं शुद्धनिश्चयनयकर अतीन्द्रिय ज्ञानमयहै, तो भी अनादि बन्धके कारण व्यवहारनयसें इन्द्रियमय शरीरको ग्रहणकर (निजकरणैः पंचभिरपि) अपनो पांचों इन्द्रियों द्वारा (पंचापि विषयान्) रूपादि पांचों ही विषयोंको जानता है, अर्थात् इन्द्रियज्ञानरूप परिणमन करके इन्द्रियोंसे रूप, रस, गन्ध, शब्द, स्पर्शको जानता है और आप (पंचभिः) पांच इन्द्रियोंकर तथा (पंचभिरपि) पांचों विषयोंसे सो (मतो न) नहीं जाना जाता, अगोचर है, (स परमात्मा) ऐसे लक्षण जिसके हैं, वही परमात्मा (भवति) है ।
भावार्थ-पांच इन्द्रियोंके विषय-सुखके आस्वादसे विपरीत, वीतराग निर्विकल्प परमानंद समरसोभावरूप, सुखके रसका आस्वादरूप, परमसमाधि करके जो जाना जाता है, वही परमात्मा है, वह ज्ञानगम्य है, इन्द्रियोंसे अगम्य है, और उपादेयरूप अतीन्द्रिय सुखका साधन अपना स्वभावरूप वही परमात्मा आराधने योग्य है ॥४५॥
अथ यस्य परमार्थेन बन्धसंसारौं न भवतस्तमात्मानं व्यवहारं मुक्त्वा जानीहि इति कथयति
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