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भावाभावहिं संजुवउ भावाभावहिं जो जि।.. .... देहि जि दिउ जिणवरहिं मुणि परमप्पउ सो जि ॥४३॥ ...
.., . भावाभावाभ्यां संयुक्तः भावाभावाभ्यां य एव । .......: . ... . देहे एव दृष्ट: जिनवरैः मन्यस्व. परमात्मानं तमेव ॥४३॥
आगे यद्यपि पर्यायाथिकनयकर उत्पाद व्ययकर सहित है, तो भी द्रव्याथिकनयकर उत्पादव्यय रहित है, सदा ध्रुव (अविनाशी) ही है, वही परमात्मा निर्विकल्प समाधिके बलसे तीर्थंकर देवोंने देह में भी देख लिया है, ऐसा कहते हैं- (य एव) जो (भावाभावाभ्यां) व्यवहारनयकर यद्यपि उत्पाद और व्ययकर (संयुक्तः) सहित है, तो भी द्रव्याथिकनयसे (भावाभावाभ्यां) उत्पाद और विनाशसे ("रहितः") रहित है, तथा (जिनवरैः) वीतरागनिर्विकल्प आनन्दरूपसे समाधिकर तद्भव मोक्षके साधक जिनवरदेवने (देहे अपि) देहमें भी (दृष्टः) देख लिया है, (तमेव) उसीको तू (परमात्मानं) परमात्मा (मन्यस्व) जान, अर्थात् वीतराग परमसमाधिके बलसे अनुभवकर ।
... भावार्थ-जो परमात्मा कृष्ण, नील, कापोत, लेश्यारूप विभाव परिणामोंसे रहित : शुद्धात्मकी प्राप्तिरूप ध्यानकर जिनवरदेवने देहमें देखा है, वही साक्षात् उपादेय है ।।४३।। . . .: अथें येन देहे वसता पञ्चेन्द्रियग्रामो वसति गतेनोद्वसो भवति स एव परमात्मा भवतीति कथयति
- दैहि वसते जेण पर इ दिय-गा, वसेई ।
उव्वसु होइ गएणं फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥४४॥ .
देहे वसता येन परं इन्द्रियग्रामः वसति ।
उद्वसो भवति गतेनं स्फुटं स परमात्मा भवति ।।४४॥ . . आगे देहमें जिसके रहने से पांच इन्द्रियरूप गांव बसता है, और जिसके निकलनेसे पंचेन्द्रिय ग्राम उजड़ हो जाता है, वह परमात्मा है, ऐसा कहते हैं-(येन पर देहे वसता) जिसके केवल देहमें रहने से (इन्द्रियग्रामः) इन्द्रिय गांव (वसति) रहता है, (गतेन) और जिसके परभवमें चले जाने पर (उद्वसः स्फुटं भवति) ऊजड़ निश्चयसे हो जाता है (स परमात्मा) वह परमात्मा (भवति) है ।
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