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[ ३३ ] ... करो। यह आत्मा जड़रूप देहमें व्यवहारनयकर रहता है, सो देहात्मबुद्धिवालेको नहीं
मालूम होती है, वही शुद्धात्मा देहके ममत्वसे रहित (विवेकी) पुरुषोंके आराधने योग्य है ।।३४॥
अथ यः समभावस्थितानां योगिनां परमानन्दं जनयन् कोऽपि शुद्धात्मा स्फुरति । तमाह
जो सम-भाव-परिट्ठियह जोइहं कोइ फुरेइ । परमाणंदु जणंतु फुडु सो परमप्पु हवेइ ॥३५॥ यः समभावप्रतिष्ठितानां योगिनां कश्चित् स्फुरति ।
परमानन्दं जनयन् स्फुटं स परमात्मा भवति ।।३।।
आगे जो योगी समभावमें स्थित हैं, उनको परमानन्द उत्पन्न करता हुआ कोई शुद्धात्मा स्फुरायमान है, उसका स्वरूप कहते हैं-(समभावप्रतिष्ठितानां) समभाव अर्थात् जीवित, मरण, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, शत्रु, मित्र इत्यादि इन सबमें समभावको परिणत हुए (योगिनां) परम योगीश्वरोंके अर्थात् जिनके शत्रु-मित्रादि सब समान हैं, और सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्ररूप अभेदरत्नत्रय जिसका स्वरूप है, ऐसी वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठे हुए हैं, उन योगीश्वरोंके हृदयमें (परमानन्दं जनयन्) वीतराग परम आनन्दको उत्पन्न करता हुआ (यः कश्चित्) जो कोई (स्फुरति) स्फुरायमान होता है, (स स्फुट) वही प्रकट (परमात्मा) परमात्मा (भवति) है,
ऐसा जानो। - ऐसा ही दूसरी जगह भी "आत्मानुष्ठान" इत्यादिसे कहा है, अर्थात् जो योगी
आत्माके अनुभव में तल्लीन हैं, और व्यवहारसे रहित शुद्ध निश्चयमें तिष्ठते हैं, उन योगियोंके ध्यान करके अपूर्व परमानन्द उत्पन्न होता है । इसलिये, हे प्रभाकरभट्ट, जो आत्मस्वरूप योगीश्वरोंके हृदय में स्फुरायमान है, वही उपादेय है । जो योगी वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें लगे हुए हैं, संसारसे पराङ मुख हैं, उन्हीं के वह आत्मा उपादेय है,
और जो देहात्मबुद्धि विषयासक्त हैं, वे अपने स्वरूपको नहीं जानते हैं, उनके आत्मरुचि नहीं हो सकती यह तात्पर्य हुआ ॥३५॥ . अथ शुद्धात्मप्रतिपक्षभूतकर्मदेहप्रतिबद्धोऽप्यात्मा निश्चयनयेन सकलो न भवतीति ज्ञापयति