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आगे जो देहरूपी देवालय में रहता है, वही शुद्ध निश्चयनयसे परमात्मा है, यह कहते हैं - (यः) जो व्यवहारनयकर ( देहदेवालये) देहरूपी देवालय में ( वसति ) बसता है, निश्चयनयकर देहसे भिन्न है, देहकी तरह मूर्तीक तथा अशुचिमय नहीं है, महापवित्र है, (देवः) आराधने योग्य है, पूज्य है, देह आराधने योग्य नहीं है, (अनाद्यनंतः) जो परमात्मा आप शुद्ध द्रव्यार्थिकनयकर अनादि अनन्त है, तथा यह देह आदि अन्तकर सहित है, (केवलज्ञानस्फुरिततनुः) जो आत्मा निश्चयनयकर लोक अलोकको प्रकाशनेवाले केवलज्ञानस्वरूप है, अर्थात् केवलज्ञान ही प्रकाशरूप शरीर है, और देह जड़ है (सः परमात्मा) वही परमात्मा ( निर्भ्रान्तः) निःसन्देह है, इसमें कुछ संशय नहीं समझना । सारांश यह है, कि जो देहमें रहता है, तो भी देहसे जुदा है, सर्वाशुचिमयी देहको वह देव छूता नहीं है, वही आत्मदेव उपादेय है ||३३||
अथ शुद्धात्मविलक्षणे देहे वसन्नपि देहं न स्पृशति देहेन सोऽपि न स्पृश्यत इति प्रतिपादयति
देहे वसंतुवि as यिमें देहु वि जो जि ।
वि
देहें faces जो विवि मुणि परमप्पड सो ज़ि ॥ ३४ ॥
देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहमपि य एवः ।
देहेन स्पृश्यते योऽपि नैव मन्यस्व परमात्मानं तमेव ||३४||
आगे शुद्धात्मा से भिन्न इस देहमें रहता हुआ भी देहको नहीं स्पर्श करता है, और देह भी उसको नहीं छूती है, यह कहते हैं - ( य एव ) जो ( देहे वसन्नपि ) देह में रहता हुआ भी ( नियमन ) निश्चयनयकर ( देहमपि ) शरीरको (नैव स्पृशति ) नहीं स्पर्श करता, ( देहेन ) देह से (य: अपि ) वह भी (नैव स्पृश्यते) नहीं छुआ जाता । अर्थात् न तो जीव देहको स्पर्श करता और न देह जीवको स्पर्श करती, ( तमेव) उसीको ( परमात्मानं ) परमात्मा ( मन्यस्व) तू जान, अर्थात् अपना स्वरूप ही परमात्मा है ।
भावार्थ — जो शुद्धात्माको अनुभूति से विपरीत क्रोध, मान, माया, लोभरूप विभाव परिणाम हैं, उनकर उपार्जन किये शुभ अशुभ कर्मोकर बनाई हुई देहमें अनुपचरित असदुभूतव्यवहारनयकर बसता हुआ भी निश्चयकर देहको नहीं छूता, उसको तुम परमात्मा जानो, उसी स्वरूपको वीतराग निर्विकल्पसमाधिमें तिष्ठकर चितवन