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। २७ । मलसे रहित (ज्ञानमयः) केवलज्ञानादि अनन्त गुणरूप सिद्धपरमेष्ठी (देवः) देवाधिदेव परम आराध्य (सिद्धौ) मुक्तिमें (निवसति) रहता है, (तादृशः) वैसा ही सब लक्षणों साहित (परः ब्रह्मा) परब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, स्वभाव परमात्मा, उत्कृष्ट शुद्ध द्रव्याथिकनयकर शक्तिरूप परमात्मा (देहे) शरीरमें (निवसति) तिष्ठता है, इसलिये हे प्रभाकरभट्ट, तू (भेदं) सिद्ध भगवानमें और अपने में भेद (मा कुरु) मत कर । ऐसा ही मोक्षपाहुड़में श्रीकुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है “णमिएहि" इत्यादि-इसका यह अभिप्राय है, कि जो नमस्कार योग्य महापुरुषोंसे भी नमस्कार करने योग्य है, स्तुति करने योग्य सत्पुरुषोंसे स्तुति किया गया है, और ध्यान करने योग्य आचार्यपरमेष्ठी वगैरहसे भी ध्यान करने योग्य ऐसा जीवनामा पदार्थ इस देहमें बसता है, उसको तू परमात्मा जान । . भावार्थ-वही परमात्मा उपादेय है ॥२६॥ .
अथ येन शुद्धात्मना स्वसंवेदनज्ञानचक्षुषावलोकितेन पूर्वकृतकर्माणिन पश्यन्ति तं किं __न जानासि त्वं हे योगिन्निति कथयन्ति
जें दिट्ठतुति लहु कम्मइपुव्व-कियाई । सो पर जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइं ॥२७॥ येन दृष्टेन त्रुट्यन्ति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि ।
तं पर जानासि योगिन् देहे वसन्तं न किम् ।।२७।।
आगे जिस शुद्धात्माको सम्यग्ज्ञान-नेत्रसे देखनेसे पहले उपार्जन किये हुए कर्म नाश हो जाते हैं, उसे हे योगिन्, तू क्यों नहीं पहचानता, ऐसा कहते हैं- (येन) जिस परमात्माको (दृष्टन) सदा आनन्दरूप वीतराग निर्विकल्प समाधिस्वरूप निर्मल नेत्रोंकर देखने से (लघु) शीघ्र ही (पूर्वकृतानि) निर्वाणके रोकनेवाले पूर्व उपार्जित (कर्माणि) कर्म (त्रुटयन्ति) चूर्ण हो जाते हैं, अर्थात् सम्यग्ज्ञानके अभावसे (अज्ञानसे) जो पहले शुभ अशुभ कर्म कमाये थे, वे निजस्वरूपके देखनेसे ही नाश हो जाते हैं, (तं परं) उस . सदानन्दरूप परमात्माको (देहे वसंतं) देहमें बसते हुए भी (हे योगिन्) हे योगी (किं न जानासि) तू क्यों नहीं जानता ?
___ भावार्थ-जिसके जाननेसे कर्म-कलङ्क दूर हो जाते हैं वह आत्मा शरीरमें निवास करता हुआ भी देहरूप नहीं होता, उसको तू अच्छी तरह पहचान और दूसरे