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स्वयंभू स्तोत्र टोका अहिंसा भूतानां जगति विदितं ब्रह्म परमं । न सा तत्रारम्भोऽस्त्यणुरपि च यत्रा श्रमविधौ ॥ ततस्तत्सिद्धयर्थं परमकरुणो ग्रन्थमुभयं ।
भवानेवाऽत्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥ ११६॥ अन्वयार्थ-[ भूताना अहिंसा ] सर्व प्राणियों की रक्षा अर्थात् पूर्ण अहिंसा [जगति ] इस लोक में [परमम् ब्रह्म] परम ब्रह्म या परमात्मस्वरूप [.विदितं ] कही गई है, [ यत्र आश्रविधौ 1 जिस पाश्रम के नियमों में [ अणुः अपि आरम्भः ] जरा भी भारम्भ या व्यापार है ( तत्र सा न ) वहां वह पूर्ण अहिंसा नहीं हो सकती है । ( ततः ) इसीलिये ( तत्सिद्धयर्थं ) उस पूर्ण अहिंसा की सिद्धि के वास्ते ( परमकरुणः ) परम दयावान (भवान्) आपने (उभयं ग्रंथ) दोनों ही अन्तरंग बहिरंग परिग्रह को (अत्याक्षीत्) त्याग कर दिया । ( विकृतवेषोपधिरतः न च ) तथा आप विकारमय वस्त्राभूषरण सहित, यथाजात दिगम्बर लिंग से विरोधी वेषों में आसक्त न हुए।
भावार्थ-आचार्य कहते हैं कि नमिनाथ भगवान ने पूर्ण अहिंसा व्रत को पाला। वास्तव में अहिंसा परमात्मस्वरूप है। जहां रागादि भाव होगा वहां आत्मा के वीतराग भाव की हिंसा होगी। अहिंसा वीतरागमय आत्मा का स्वभाव है। जब आत्मा अपने स्वभाव में तल्लीन होता है तब ही पूर्ण वीतरागता है व तब ही पूर्ण अहिंसा है ।
श्री अमृतचन्द्र आचार्य ने श्री पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्य में कहा हैअप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिसे ति । तेषामेवोत्पत्ति हसे ति जिनागमस्य संक्षेपः ।। ४४ ॥
भावार्थ-रागद्वषादि का नहीं पैदा होना अहिंसा है । उन्हीं का पैदा होना हिंसा है यह जिनागम का सार हैं । दूसरे प्राणी को कष्ट विना हिंसक परिणाम के नहीं दिया जा सकता है । जिसने हिंसक भावों का अभाव कर दिया है वहां अन्तरंग व बहिरंग दोनो . ही प्रकार से अहिंसा मौजूद है । जिस किसी साधुपद में खेतीवारी रोटी बनाना आदि का जरा भी प्रारम्भ होगा वहां पूर्ण अहिंसा नहीं मिल सकती है। क्योंकि रागभाव के बिना प्रारम्भ होता नहीं व जहां प्राणी का घात करना पड़े वहां पभाव होता ही है, इसलिये जिस साधुपद में जरा भी व्यापार व प्रारम्भ नहीं होगा वहीं पूर्ण अहिंसा पलती है । इस