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श्री नमिनाथ स्तुति
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प्रभु ! आपने [ बहुनयविवक्षेतरवशात् ] बहुत से नयों की अपेक्षा से व अन्य नयों को पेक्षा बिना [ तत्त्वं गीतं ] जीवादि तत्त्व का स्वरूप कहा है । ( तत् ) वह तत्त्व ( विधेयं ) अपने स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा प्रतिरूप है ( वार्य ) व पररूपादि चतुष्टय की अपेक्षा नास्तिरूप है, ( उभयं ) क्रम से कहने पर अस्ति नास्ति स्वरूप है, (ग्रनुभयं च ) और एक समय में वचन द्वारा दोनों प्रस्ति नास्ति धर्मों को न कहने की अपेक्षा तत्त्व अवक्तव्य है [ मिश्रं श्रपि ] वही तत्त्व अस्ति वक्तव्य है, नास्ति वक्तव्य है, अस्ति नास्ति वक्तव्य है । [ प्रत्येकं ] हरएक तत्त्व [ सदान्योन्यापेक्षः ] सदा एक दूसरे की अपेक्षा से [ परिमितैः ] अनेक [ नियम विषयैः विशेषैः ] अपने नियमरूप धर्मों से विशिष्ट है ।
भावार्थ - हे नमिजिनेश ! आपने तत्त्व को अनेक अपेक्षाओं से इसीलिए बताया है कि उसके भीतर जो अनेक स्वभाव पाये जाते हैं उनका ज्ञान शिष्य को हो जावे । वस्तु में अनेक स्वभाव एक दूसरे की अपेक्षा से पाये जाते हैं । तत्त्व में सत् श्रसत्पता सिद्ध करने को सात भङ्ग आपने बताये हैं वे इस तरह हैं कि जैसे जीव है अपने द्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा से, अर्थात् जीव में जोवपने की मौजूदगी है तब ही उसमें प्रजीवपने की गैर मौजूदगी है अर्थात् जीव अजीब की अपेक्षा से असत् है अर्थात् जीव में जीवपना नहीं है । जीव अपेक्षा सत् है यह एक भंग है । प्रजीव प्रपेक्षा से असत् है यह दूसरा भंग है, दोनों ही सत् प्रसत्पना है इससे जीव सत् असत् उभयरूप है, यह तीसरा भंग है। सत् असत् एक काल में जीव में हैं तथापि वचनोंसे एक साथ कहे नहीं जासकते इससे जीव तत्त्व अनुभय या वक्तव्य है यह चौथा भंग है । यद्यपि प्रवक्तव्य है तथापि सत् रूप है, यह पांचवां भंग है, यद्यपि वक्तव्य है तथापि सत्रूप है, यह छठा भंग है । यद्यपि वक्तव्य है तथापि सत् श्रसत्रूप है यह सातवां भंग है । इस तरह नित्य अनित्य, एक अनेक ऐसे दो विरोधी धर्मों को सिद्ध करने के लिये सात भंग किये जा सकते हैं ।
इस तरह कथन करके आपने शिष्यों का बहुत बड़ा उपकार किया है ।
सृग्विणी छन्द
श्रस्ति नास्ती उभय वानुभय मिश्र तत् । सप्तभंगीमयं तत् अपेक्षा स्वकृत् । त्रियमितं धर्ममय तत्त्व गाया प्रभू । नैक नयकी अपेक्षा जगत गुरु प्रभू ॥ ११७ ॥ उत्थानिका और भी भगवान के गुरणों को कहते हैं