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स्वयंभू स्तोत्र टीका
वैराग्य घरते हैं- जो मोक्ष के अतीन्द्रिय सुख के इच्छुक हैं व जो सर्व परिग्रह के त्यागी हैं ।
नाराच छन्द
चक्रवति पद नृपेन्द्र चक्र हाथ जोडिया । यतीश पदमें दयार्द्र धर्मचक्र वश किया । अरहन्त पद देव चक्र हाथ जोड नत किया । चतुर्थ शुक्लध्यान कर्म नाश मोक्ष वर नियां ॥ ८० ॥ उत्थानिका - स्तुतिकार स्तुति के फल की चाहना करते हैंस्वदोषशान्त्याविहितात्मशान्तिः, शान्तविधाता शरणं गतानाम् । भूयाद्भवक्लेश भयोपशान्त्य, शान्तिजिनो मे भगवान् शरण्यः ॥ ८० ॥
श्रन्वयार्थ -- ( भगवान् शान्तिः जिनः ) परम ऐश्वर्यवान इन्द्रादि से पूज्य श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र ( स्वदोषशांत्या विहितात्मशांतिः ) आपने अपने रागादि दोषों को क्षय करके अपने श्रात्मा में पूर्ण वीतरागता प्राप्त की है । ( शरणं गतानाम् शांते: विधाता ) व जो आपकी शरण में जाते हैं उनको आपके द्वारा शांति प्राप्त हो जाती है ( शरण्यः ) आप सर्व रक्षकों में परम शरण हैं ( मे ) मुझे [ भवक्लेशभयोपशान्त्यै भूयात् ] संसार से व दुःखों से व सर्व भयों से रक्षित होने में निमित्त कारण हूजिये ।
भावार्थ - श्री समन्तभद्राचार्य ने श्री शांतिनाथ भगवान का नाम सार्थक करते हुए स्तुति करके अपने कल्याण की भावना की है। भगवान का नाम वास्तव में शांतिनाथ है। जैसे परम शीतल क्षीरसागर के पास जो जाता है वह शान्ति पाता है, प्रताप मिटाता है. उसका मन प्रफुल्लित हो जाता है, उसी तरह शांतिनाथ भगवान स्वयं सुखशांति के सागर हैं क्योंकि आपने अपने श्रात्मध्यान के बल से सर्व रागद्वेषादि दोष निकालकर फेंक दिये जो आत्मशान्ति में बाधक थे । प्रापने पूर्ण वीतरागता व पूर्ण स्वाभाविक प्रानन्द प्राप्त कर लिया । तीन लोक में यदि कोई ऐसी शरण ढूंढ़े जहां जानेसे उसका भव प्रताप मिटे तो वह आप ही हैं । आपके सिवाय कोई भी पूर्ण वीतराग नहीं है, जिसकी उपासना से पूर्ण वीतरागता का आदर्श मिल सके । तब जो कोई देव, मानव या पशु प्रापकी शरण में श्राता है, आपका ध्यान करता है, ग्रापकी पूजा करता है, आपका स्तवन करता है, श्रापका नाम जपता है, उन सबको स्वयं शान्ति मिल जाती है । प्राप तो स्वयं वीतराग हैं, किसी