SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्री शान्तिनाथ स्तुति १५१ रहता था, ( मुनौ ) साधु अवस्था में ( दयादीधितिधर्मचक्रम् ) दयामईकिरणों का धारी रत्नत्रयमई धर्मरूप चक्र वश होगया। ( पूज्ये ) पूजनीय अरहन्त पद में ( देवचक्रं ) देवों का समूह ( मुहुः ) बार २ हाथ जोड़े हुए उपस्थित रहा तथा ( ध्यानोन्मुखे ) चौथे शुक्ल ध्यान को ध्याते हुए (ध्वंसिकृतान्तचक्रम् ) चार अधातिया कर्मों का समूह नाश होकर मोक्षरमा आपके सामने खड़ी होगई। - - भावार्थ-यहां पर श्री शांतिनाथ भगवान की अपूर्व महिमा का वर्णन किया है। शांतिनाथ भगवान ऐसे प्रतापशाली थे कि जीवनभर सदा ही स्वाधीन व दूसरों से पूजनीक रहे । जिस समय श्राप चक्रवर्ती थे उस समय आपकी सभा में राजाओं के समूह हाथ नोड़े खड़े रहते थे । जब पाप मुनि हुए तब अहिंसामई रत्नत्रय धर्म ने आपका स्वागत किया। अर्थात् आपने मुनिपद का चारित्र बहुत ही उत्तम प्रकार से पाला । मन, बचन, काय से अहिंसा धर्म को पालते हए न तो क्रोधादि कषायों से अपने आत्मा को मलोन किया और न किसी जीव के प्राणों की रक्षा में प्रमाद किया। सांगोपांग मुनिधर्म को पाला। उस समय के वीतराग ध्यान के प्रभाव से जब हे प्रभु ! आप पूज्यनीक अरहन्त हुए और समवसरण में विराजे तब देवों का सम ह आपके सामने बार-बार प्राकर हाथ जोड़े नमस्कार करके खड़ा रहा । और जब आपने मोक्ष लक्ष्मी के लेने के लिए व्युपरतक्रियानिति नाम का चौथा शुक्लध्यान प्राराधन किया तब उसके प्रभाव से आयु, नाम, गोत्र, वेदनीय चार शेष अघातिया कर्मों को भी नाश किया, लब मोक्षलक्ष्मी स्वयं प्रभु के सामने प्राकर उपस्थित होगई । इस श्लोक में कवि ने प्रभु के जीवन का अच्छा वर्णन कर दिया है। प्रभु ने धर्म अर्थ काम मोक्ष चारों पुरुषार्थ साधन कर लिये, राज्य करते हुए चक्रवर्ती व कामदेव पद में सर्व से अधिक · उत्कृष्ट अर्थ व काम पुरुषार्थ साधा। मुनि पद में सर्वोत्कृष्ट धर्म साधा, केवली-पद में मोक्ष को भी सिद्ध कर लिया । आपके इस कथन से यह शिक्षा मिलती है कि हरएक बुद्धिमान मानव को इस संसार के क्षणिक भोगों में लुब्धायमान न होना चाहिये । किन्तु प्रात्मा के अविनाशी सुख पाने का पुरुषार्थ करना चाहिये जिससे यह आत्मा सदा के लिए परम सुखी व स्वाधीन हो जावे । फिर कभी जन्म मरण के प्रपंन में न पड़े। सार समुच्चय में कहा है----- .. संसारोद्विग्नचित्तानां निःश्रेयससुखैषिणाम् । सर्वसंगनिवृत्तानां धन्यं तेषां हि बोवितम् ।। २२ ॥ भावार्थ उन ही मानवों का जीवन धन्य है जो इस प्रसार संसार से चिन्त में
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy