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श्री अनन्तनाथ जिन स्तुति
१३७ उत्थानिका-यदि भगवान उदासीन होकर भी स्तुति किये जाने पर स्तुतिकर्ता को विशेष फल प्राप्ति में कारण हैं तब हम क्या भगवान का महात्म्य वर्णन कर सकते हैं।
त्वमीदृशस्ताहश इत्ययं मम, प्रलापलेशोऽल्पमतेमहामुने ! अशेषमाहात्म्यमनीरयन्नपि, शिवाय संस्पर्श इवामृताम्बुधेः ॥७०॥
अन्वयार्थ-(महामुने !) हे महामुनि (त्वम् ईदृशः तादृशः) आप ऐसे हैं वैसे हैं .. (इति अयं) यह जो कुछ (अल्पमतेः मम प्रलापलेशः) मुझ अल्प बुद्धि का कथन है वह
(अशेष माहात्म्यम् ) आपके सम्पूर्ण महात्म्य को ( अनीरयन् अपि) न कह सकता हुआ - (अमृतांबुधेः संस्पर्श इव) अमृतमई समुद्र के स्पर्श मात्र से जैसे सुख होता है वैसे (शिवाय)
मोक्ष सुख देने में निमित्त है। - भावार्थ-जैसे अमृत से भरे हुए समुद्र के स्पर्शन मात्र ही से प्राणी को सुख · होता है उसमें अवगाहन होने की तो बात ही क्या है, उसी तरह मैं अल्प बुद्धि हूं, आपके सर्वगुणों का यथावत् ज्ञान करने को असमर्थ हूँ तोभी जो कुछ मैं टूटे फूटे शब्दों में आपके गुणानुवाद का एक अंश मात्र करता हूं उससे तो मेरा कल्याण ही होगा । यह मैं उसी तरह प्रतीति रखता हूं। क्योंकि आपने ही बताया है कि मुख्य श्रद्धा व रुचि है। मैं तुच्छ ज्ञानी होकर आपमें जो अपनी गाढ़ श्रद्धा रखता हूं कि आप ही सच्चे पूज्य परमात्मा हैं. आप ही वीतराग सर्वज्ञ हैं. आप परम उदासीन हैं तथापि जो आपको श्रद्धा करते हैं उनके परिणाम निर्मल हो जाते हैं ऐसा जानकर मैं आपकी भक्ति में लगा हा
हूं। मुझे विश्वास है कि हे महामुनि ! आपकी भक्ति मोक्षमार्ग में प्रेरित करनेवाली है, .. आपकी भक्ति संसार समुद्र में तारने के लिये नौका के समान है। प्रापकी भक्ति भक्तवंत
को तुर्त ही प्रानन्द को देनेवाली है। आपकी भक्ति आत्मा में अपूर्व साहस बढ़ानेवाली है। आपकी भक्ति पाप के मैल को काटनेवाली है । इस तरह विश्वास करके मैं आपकी मक्ति करता हूं। वास्तव में आप तो गुण के समुद्र हैं, आपकी महिमा तो वचन अगोचर हैं । जो आपके समान ही प्रत्यक्ष ज्ञानो हैं वे ही आपकी महिमा को जान सकते हैं या चार ज्ञान के धारी गणधर मुनि कुछ एक अंश मात्र पता पा सकते हैं । मैं तो अल्पमति व श्रुतज्ञान का धारी हूँ। मैं कैसे आपके गुणों का अंश भी समझ सकता हूं? ज्ञान न होते हुए भी मुझे विश्वास है कि प्रापकी स्तुति मेरे श्यात्मा के लिये परम सुखदाई होगी।