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स्वयंभू स्तोत्र टीका देता है। ऐसा यदि मानोगे कि कोई ईश्वर सुख देता है तो वह ईश्वर बड़ा प्रपंची हो जायगा तथा वह रागद्वेषी होकर संसारी आत्मा के समान हो जायगा । सो जो कोई वीतराग नित्यानन्दमई परमात्मा होता है वह बिलकुल समभाव में रहता है । कोई प्रशंसा करो तो प्रसन्न नहीं होता, कोई निन्दा कगे तो प्रप्रसन्न नहीं होता। आप तो ऐसे ही परम उदासीन परमात्मा हैं। तथापि हम तो अपना हित आपसे कर ही लेते हैं। यही एक आश्चर्यकारो बात बाहर से मालूम पड़ती है परन्तु वस्तु स्वभाव की अपेक्षा से यह एक साधारण नियम है। जैसे शास्त्र पढ़के हम स्वयं ज्ञान करलेते हैं वैसे जिनेन्द्र को पूजन करके व उनको स्तुति करके हम स्वयं पुण्य बांधकर या वीतराग प्रात्मीक भाव बढ़ाकर अपना परम हित कर लेते हैं।
श्री नागसेन मुनि ने तत्त्वानुशासन में कहा हैगुरूपदेशमासाद्य ध्यायमानः समाहितः । अनन्तशक्तिरात्मा यं मक्ति भुक्ति च यच्छति ॥ १६६ ।। ध्यातोऽहसिद्धरूपेण चरमांगस्य मुक्तये । तद्व्यानोपात्तपुण्यस्य स एवान्यम्य भुक्तये ।। ६७|| ज्ञान श्रीरायुरारोग्यं तुष्टिपुष्टिं पुर्वधृतिः । यत्प्रशस्तमिहान्यच्च तत्तद् ध्यातुः प्रजायते ।। १६८ ॥
भावार्थ-जो पुरुष उपदेश पाकर समाधान चित्त हो प्रात्मा का ध्यान करते हैं उनको यह अनन्त शक्तिवाला प्रात्मा मुक्ति व भुक्ति दोनों देता है। बारहन्त या सिद्ध का स्वरूप ध्यान में लेकर जो ध्यान करते हैं, यदि वे तद्भव मोक्षगामी हए तो वे म काट कर मोक्ष चले जाते हैं और यदि ऐसे न हुए तो महान पुण्य अपने विशुद्ध नावों से बांध लेते हैं जिससे उनको जगत के भीतर इन्द्र व चक्रवर्ती श्रादि के भोग प्राप्त हो जाते हैं। जो सच्चे प्रेम से ध्यान करते हैं उनके ज्ञान की वृद्धि होती है। उनको पुण्य के वध होने से आगामी लक्ष्मी, दीर्घ प्रायु, आरोग्य, संतोष, बलवानपना. शरीर सुन्दरता, धर्य व पौर भी जो जो अच्छी २ वस्तुयें हैं सो सब मिल जाती हैं। परिणामों की अपूर्व महिमा है। वह जीव अपने ही परिणामों से अपना तुरा कर लेता है व अपने परिणामों से अपना भला कर लेता है-परपदार्थ मात्र निमित्त कारण है
पद्धरी छन्द गुमम करे वे पन लहंत, तुम दंप करें हो नाशवन्त । तुम दोनों पर हो वीतराग, तुम चारत हो अद्भुत गुहाग । ६६ ।।