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स्वयंभू स्तोत्र टीका दोनों रूप है। सत्ता सामान्य की अपेक्षा वस्तु अद्वैतरूप व एकरूप है वही वस्तु द्रव्यादि भेद, गुण, पर्यायभेद इत्यादि की अपेक्षा अनेकरूप व द्वैतरूप हैं । बिना अनेकान्त के सत्य का प्रतिपादन ही नहीं बन सकता।
मालिनी छन्द
जब होय विवाद सिद्ध दृष्टान्त चलता। वह करता सिद्धो जब अनेकान्त पलता। एकांत मतों मे साधना होय नाही । तर प्रत है साचा सर्व सधता तहां ही ।।१४।।
उत्थानिका-शङ्काकार कहता है कि एकान्त का निषेध होने पर ही अनेकान्त को सिद्धि हो सकती है कि हरएक वस्तु अनेक धर्मों से प्राप्त है। परन्तु एकान्त का निषेध कैसे किया जायगा ? इमका समाधान करते हैं
एकान्तदृष्टिप्रतिषेधसिद्धि,ायेषुभिर्मोहरिपुनिरस्य । असि स्म कैवल्यविभूतिसम्राट्, ततस्त्वमहन्नासि मे स्तबाऽर्हः ।।५५।।
अन्वयार्थ-(एकांतदृष्टिप्रतिपेसिद्धिः) वस्तु सर्वथा भाव रूप ही है या अभावरूप ही है, नित्यरूप ही है या अनित्यरूप ही है इत्यादि अभिप्राय को रखने वाला जो एकांतमत उसका निषेध हो जाना या उसके निषेष की सिद्धि ( न्यायेषुभिः ) न्याय के वारणों से हो जाती है । अर्थात् अनेकान्त नयके प्रतिपादन से एकान्त का निषेध हो जाता है । हे प्रभु ! प्रापका ज्ञान प्रमाण है वही सच्चा वारण है। इसी अनेकांतमई प्रात्म-पदार्थ का अनुभव रूप ज्ञान के वारणों से आपने (मोहरिपु निरस्य) मोहरूपी शत्रु को नाश करके और फिर ज्ञानावररणादि तीन अन्य घातिया का संहार करके ( कैवल्यविभूतिसम्राट असि स्म ) श्राप केवलज्ञानरूपी विभूति के धर्म चक्रधारी तीर्थकर सम्राट होगए (ततः ) इसी कारण से ( त्वम् ) श्राप ( मे स्तवार्हः ) मेरे द्वारा स्तुति करने योग्य [ ग्रहन अनि ] घरहन्त हो।
भावार्थ-यहां यह बताया है कि अनेकांत मत ही एकांत के निषेध के लिये बाल है। जव अनेकांत नयसे अर्थात् न्यावाद से ही अनेकांत स्वरूप वस्तु का साधन होता है तथा एकांत से हो नहीं तक्ता तब अनेकांत ही एकांतनत का निराकरण करने वाला है। यदि कोई वस्तु को सर्वथा भावरूप ही कहे तो उसका मण्डन अनेकांत कर देता है कि
पने निज स्यरूप से तो भावरूप है वहीं पर स्वरूप की अपेक्षा अनायम्प भी है।
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