________________
१०५
श्री श्रेयांशनाथ जिन स्तुति सर्व ही बातों को प्रगट कर सकता है अर्थात् आपके मत को मानते हुए हेतु व दृष्टान्त सर्व बन सकेगा।
भावार्थ---यहाँ पर यह बताया है कि जब वादो किसी बात को किसी नय से प्रतिवादी को सिद्ध करना चाहता है तब ऐसा दृष्टान्त भी देता है जिससे प्रतिवादी को मान्य होजावे । तथा यह दृष्टान्त ऐसा होता है जिसको दोनों ही मानते हैं । जैसे यह कहा गया कि इस शरीर में जीव है, क्योंकि यहां इन्द्रियां जान रही हैं। जहां २ जीव नहीं होता है वहां २ जानने का काम नहीं होता है । जैसे काठ का पुतला । क्योंकि काठ का पुतला नहीं जानता है इसलिये जीव रहित जड़ है । तथा जहां देखना स्वाद लेना आदि क्रियायें हो रही हैं वह जीव सहित है, जैसे हम तुम । यहां काठ के पुतले का दृष्टान्त वादी प्रतिवादी को मान्य है कि वह जड़ है । यही उदाहरण जीव की सिद्धि करने के लिये साधक पड़ा । यह उदाहरण तब ही बन सका जब काठ के पुतले में भाव तथा प्रभाव दो स्वभाव माने गए । काठ के पुतले में जड़त्व का भाव है तब ही जीवत्व का अभाव है। यदि भाव च अभाव न मानकर मात्र एकान्त ही माना जावे तो कभी हष्टान्त दिया ही नहीं जा सकता । हरएक दृष्टान्त किसी साधन में सहायक है तब ही दूसरे के लिये बाधक है । जैसे कहा कि पर्वत पर अग्नि है क्योंकि धुनां दिख रहा है, जैसे रसोई घर में अग्नि । यह दृष्टान्त दोनों को मान्य है व अनुभव है कि रसोईघर में धुआं जब होता है तब अग्नि अवश्य होती है । तथा यह दृष्टान्त जब पर्वत पर अग्नि सिद्ध करने के लिये साधन है तब सरोवर में जल है इसके सिद्ध करने के लिये साधन नहीं है । जो मत वस्तु में एक ही धर्म मानते हैं उन मतों से वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती है, दृष्टान्त भी नहीं बन सकता है; क्योंकि वस्तु अनेक धर्मरूप है ही। हे श्रेयांसनाथ ! प्रापका मत ही यथार्थ वस्तु को सिद्ध कर सकता है। यदि कोई वस्तु को अद्वैत ही माने, एकरूप ही माने, भेद वास्तविक न माने तो वह अपने पक्ष को सिद्ध ही नहीं कर सकता । जैसा प्राप्तमीमांसा में कहा है-- - हेतोरद्वैतसिद्धिश्चेद् तं स्याद्ध तुसाध्ययोः । हेतुना चेद्विना सिद्धिः द्वैतं वांड मात्रतो न किम् । २६॥
. भावार्थ-अद्वैत की सिद्धि जब किसी साधन से करने लगेंगे तव ही अडत नहीं रहेगा । क्योंकि साधन व साध्य का हत सामने आ जायगा । यदि साधन के बिना ही मिद्धि कहोगे-साधन नहीं कहोगे तो वचन मात्र से द्वेत ही को क्यों न मान लिया जावे ? । इसलिये वस्त का स्वभाव एकरूप मानने से ही कुछ काम न चलेगा, वस्तु हत व अहत