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________________ श्री शीतलनाथ जिन स्तुति नलदाहमूछितं ) इन्द्रिय विषय सुख की तृष्णा रूपी अग्नि की जलन से मोहित व हेय या उपादेय के विवेक से शून्य [निजं मनं] अपने मन को [ज्ञानमयामृताम्बुभिः] आत्मज्ञानमई अमृत के समान जल की वर्षा से [व्य दिध्यपः] शान्त कर दिया। भावार्थ-यहां यह बताया है कि श्री शीतलनाथ भगवान के वचनों में अपूर्व शीतलता होने का कारण यह था कि प्रभु का प्रात्मा प्रभु के प्रयत्न से हो उन्नतिशील बना था । इस संसार में जैसे और जीव भ्रमण कर रहे हैं वैसे प्रभु का आत्मा भी भ्रमरण कर रहा था और मिथ्यात्व के विष से मछित था । मिथ्यात्व ऐसा भयानक विष है कि जिससे __ मूछित हा प्राणी रात्रि दिन संसार के इन्द्रियजनित सुख की इच्छा की दाह से जलता रहता है। उस दाह की शान्ति के लिये जिस शरीर में जब तक रहता है तब तक प्रयत्न किया करता रहता है । इच्छित पदार्थों का भोग भी कर पाता है तब भी तृष्णा की प्राग को न बुझाकर उल्टा बढ़ा लेता है। अन्त में चाह को दाह में ही जलता हुअा मरता है । और रौद्रध्यान से नर्कगति में पहुंच जाता है कभी पात परिणाम होते हैं । वर्तमान स्त्री पुत्रादि धनादि के छटते हुए भाव शोकाकुल हो जाते हैं तब मरकर पशुगति में चला जाता है। कदाचित् विषय वांछा के ही अभिप्राय से पुण्यबन्ध के लोभ से कठिन कठिन तपस्या भी करता है व मुनि धर्म का आचरण भी पालता है । प्रात्मज्ञान व आत्मानन्द शून्य द्रव्य लिङ्ग में मग्न रहता है। उससे निदान करता हा कभी देव या मानव भी हो जाता है। परन्तु वहां भी मिथ्यात्व का संस्कार नहीं छूटता हुआ जीव को सदा ही विषयसुख की तृष्णा में भी जलाया करता है । इस तरह आपका जीव इस संसार में चारों गति में भ्रमण करता हुया महान् कष्ट भोग रहा था। तब आपने किसी समय इस मिथ्यात्व के विष के हटाने की औषधि प्राप्त कर ली। अर्थात् प्रात्मानुभव रूपी निश्चय सम्यग्दर्शन का लाभ कर लिया जिसमें सम्यग्ज्ञान च सम्यग्चारित्र भी गभित है। इस स्वात्मज्ञान के अनुभव से जो प्रात्मानन्द का लाभ हमा, जो अपूर्वज्ञानामत की धारा बही उसका पान करतेहए अापने उस मिथ्यात्व के विषको सर्व या निकालके फेंक दिया। पाप क्षायिक सम्यक्त्वी होगए । परम तत्वज्ञानी महात्मा होगए । प्राप उसी तरह स्वस्थ हो गए जिस तरह कोई प्रवीण मन्त्र ज्ञाता वैद्य अपने शरीर पर चढ़े हुए सर्प कविष को विष निवारक मन्त्रों के प्रयोग से उतार कर स्वस्थ हो जाता है । सार समुच्चय में
SR No.010072
Book TitleParmatma Prakash evam Bruhad Swayambhu Stotra
Original Sutra AuthorYogindudev, Samantbhadracharya
AuthorVidyakumar Sethi, Yatindrakumar Jain
PublisherDigambar Jain Samaj
Publication Year
Total Pages525
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size29 MB
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