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स्वयंभू स्तोत्र टीका दाह सब शान्त हो जाता है। वे ऐसी अपूर्व शीतलता को पा लेते हैं कि वैसी शीतलता उनको वह चन्दन नहीं देता है जिसको वे अपने शरीर पर मलते हैं, न चन्द्रमा की किरणें देती हैं जो रात्रि को उनके ऊपर पड़ती हैं, और न गङ्गा नदी का जल ही दे सकता है और न मोतियों की मालाएं ही दे सकती हैं। इन सब दृष्टान्तों को देकर बताया है कि जगत में जितने भी शीतल जड़मई पदार्थ हैं वे मात्र शरीर के ऊपर का ताप भले ही हरले व ठण्डक देवें, परन्तु उनमें आत्मा के भीतर का प्राताप हरग करने की शक्ति नहीं है, न आत्मीक सुख शान्ति देने की ताकत है । यह शक्ति तो आपके वचनरूपी किरणों में ही है । इसी से प्राप वास्तव में अपूर्व चन्द्रमा हैं। आपके समान शीतल पदार्थ कोई नहीं है। इसी से आप सच्चे ही शीतलनाथ हैं । वास्तव में सच्चे प्राप्त का यही स्वरूप है । प्राप्तस्वरूप में कहा है
येन जितं भवकारणसर्व मोहमलं कलिकाममलं च ।
येन कृतं भवमोक्षसुतीर्थ सोऽस्तु सुखाकर तीर्थ सुकर्ता ।। ६१ ।।
भावार्थ-जिसने संसार के कारणीभूत सर्व मोह मल को व मलीन काम रूपी पल आदि दोषों को नीत लिया है व जिसने संसार से छुड़ाने वाले सच्चे तीर्थ का प्रतिपादन किया है वही सुख की खान धर्मरूपो तीर्थों के यथार्थ कर्ता तीर्थकर होते हैं
छन्द श्रग्विनी
तव अनघ वाक्य किरणें, विशद ज्ञानपति । शान्त जल पूरिता, शम करा सुष्टुमति ।। है तथा शम न चन्दन, किरण चन्द्रमा । नाहिं गङ्गा जलं, हार मोती .शमा ।।४६॥
उत्थानिका-जिस भगवान की ऐसी वचन किरणें हैं उन्होंने क्या किया था सो । कहते हैं
सुखाऽभिलाषाऽनलदाहमूच्छितं, मनो निजं ज्ञानमयाऽमृताम्बुभिः । यदिध्यपस्त्वं विषदाहमोहितं,यथा भिषग्मन्त्रगुरणः स्वविग्रहं ॥४७॥
अन्वयार्थ-(यथा) जैसे (भिपक) वैद्य (मंत्रगुणः) मंत्रों के उच्चारण व जपन व स्मरण के गुणों से ( विपदाहमोहितं ) सर्प के विप से संतापित होकर मूळ को प्राप्त (म्बविग्रहं) अपने शरीर को विप रहित कर देता है वैसे (त्वं) आपने ( सुखाभिलाषा