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स्वयंभू स्तोत्र टीका
हरएक पदार्थ में विधि व निषेधपना अपेक्षा से है सो ही श्री समन्तभद्राचार्य ने प्राप्तमीमांसा में कहा है
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वह वस्तु अपने
विधेयप्रतिषेध्यात्मा विशेष्यः शब्दगोचरः । साध्यधर्मो यथा हेतुरहेतुश्चाप्यपेक्षया ॥ १६ ॥ भावार्थ - जिस किसी विशेष वस्तु को शब्द से कहेंगे वह तब ही सम्भव है जब उसमें विधेय अर्थात् अस्तित्व व प्रतिषेधि अर्थात् नास्तित्व दोनों हों। स्वरूप से अस्तित्व है, परस्वरूप से नास्तित्व है अर्थात् जहां प्रस्तित्व है भिन्न २ अपेक्षा से है, सर्वथा नहीं । जैसे साध्य का धर्म वह हेतु भी है अग्निना साधने में धूम का हेतु हेतु है, वही धूमपना हेतु जलपना के साधने उधर घूम में हेतुपना अग्नि के लिये है, तब ही अहेतुपना जल के लिए है ।
वहां
नास्तित्व है,
हेतु
में
भी है ।
हेतु है ।
वस्तु में उसके स्वभाव में सर्वथा न तो भेद है न सर्वथा अभेद है । किसी अपेक्षा से भेद व अभेद दोनों हैं, ऐसा ही स्वामी प्राप्तमीमांसा में बताते हैं
सज्ञाः संख्या विशेषाच्च स्वलक्षण विशेषतः । प्रयोजनादिभेदाच्च तन्नानात्वं न सर्वथा ॥ ७२ ॥ | भावार्थ- - द्रव्य व गुरण में या स्वभाव में संज्ञा संख्या के भेद से व अपने २ लक्षण के भेद से व प्रयोजन के भेद से परस्पर भेद है, परन्तु सर्वथा भेद नहीं 1 क्योंकि जहां द्रव्य है वहीं गुरण हैं व उसके स्वभाव हैं। दृष्टान्त में जीव में ज्ञान गुरण है, जीव का नाम भिन्न है, ज्ञान का नाम भिन्न है यह तो नाम भेद हुआ, जीव की संख्या ग्रन्य प्रकार है. ज्ञान की संख्या अन्य प्रकार है, जीव का लक्षण चेतना अर्थात् दर्शन और ज्ञान उभयरूप है । ज्ञान का लक्षण मात्र जानना है । जीव का प्रयोजन सुख व शान्ति पाना है। ज्ञान का प्रयोजन मात्र जानना है व अज्ञान का मेटना है । इस तरह संज्ञा, संख्या, लक्षण व प्रयोजन इन चार की अपेक्षा तो गुरण व गुरगो में व स्वभाव व स्वभाववान में भेद है परन्तु प्रदेश की अपेक्षा भेद नहीं है, क्योंकि जहां जीव है वहीं ज्ञान है । इसीलिये यह कहना ठीक है कि सत्ता व असत्ता का वस्तु के साथ कथचित् भेद है व कथंचित् प्रभेद है, सर्वथा भेद व सर्वथा अभेद नहीं है । इस तरह इस श्लोक में एक तो यह सिद्ध किया कि वस्तु में सन्ना या प्रसत्ता दोनों स्वभाव रहते हैं । तथा इन स्वभावों का वस्तु से किसी ग्रपेक्षा भेद है व किसी अपेक्षा प्रभेद है ।