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स्वयंभू स्तोत्र atri
उत्थानिका - ऐसा अनेकांत तत्त्व कैसा है उसे बताते हैंतदेव च स्यान्न तदेव च स्यात्तथा प्रतीतेस्तव तत्कथंचित् नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च, विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ॥ ४२ ॥
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अन्वयार्थ - ( तव ) आपके मत में (तदेव च स्यात्) जीवादि वस्तु अपने स्वरूपसे है भी (तदेव च न स्यात्) तथा परके स्वरूपसे नहीं भी है ( तत् कथंचित् तथा प्रतीतेः ) ऐसा पदार्थ सर्वथा अस्ति नास्ति स्वरूप या सत् या प्रसतुरूप या भाव प्रभावरूप नहीं है, किन्तु किसी भिन्न २ अपेक्षा से है । स्व-स्वरूपादि चतुष्टयकी अपेक्षा वस्तु प्रस्तिरूप है । अर्थात् वस्तु में प्रस्तिपना या भावपना या सपना है उसी समय पर - स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा वस्तु नास्तिरूप है । प्रर्थात् वस्तु में नास्तिपना, या प्रभावपना या सपना है । ऐसा वस्तुका भाव प्रभावरूप स्वभाव प्रमारग से प्रतीति में आरहा है । ( विधेः च निषेघस्य ) इस विधि और निषेधका या अस्तित्व नास्तित्वका ( श्रत्यन्तं ग्रन्यत्वम् न, न च अनन्यता ) पदार्थ के साथ सर्वथा न तो भेदपना है और न सर्वथा अभेदपना है ( शून्यदोपात्) सर्वथा भेद या प्रभेद मानने से वस्तुके शून्य या नाश होनेका दोष श्राजायगा । श्रस्तित्व नास्तित्व दोनों स्वभाव वस्तुके हैं. सो वस्तुमें दोनों हरसमय रहते हैं । यदि ऐसा मानें कि अस्तित्वपना वस्तु से अलग रहता है । तब अस्तित्व के बिना वस्तु रह नहीं सकती - उस वस्तुका प्रभाव हो जायगा व अस्तित्व स्वभाव भी निराधार नहीं रह सकता । हरएक स्वभाव या गुरग किसी वस्तुमें ही रहेगा, भिन्नता मानने से अस्तित्वका प्रभाव होगा और यदि नास्तित्व को बिलकुल वस्तुसे भिन्न मानें तो सर्व वस्तु मिलकर एक होजायगी । नास्तित्व धर्म वस्तुमें रहता है तब ही वस्तुका वस्तुपना झलकता है कि वस्तु पर स्वरूप न होकर अपने स्वरूप से है । तथा नास्तित्व धर्म भी आधार बिना कहां रह सकेगा, उसका भी प्रभाव होजायगा । यदि ऐसा मानें कि सर्वथा अस्तित्व व नास्तित्व धर्मका वस्तु में प्रभेद ही है तब भी नहीं बनेगा । सर्वथा अस्तित्वका व नास्तित्वका श्रभेद मानने से यह कहा भी न जाकेगा । न समझा जासकेगा कि वस्तु नहीं है । तथा यदि पदार्थ में सर्वथा दोनों का अभेद मानें तो दो विरोधी धर्म विना अपेक्षा के वस्तुका प्रभाव ही कर डालेंगे।
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भावार्थ -- यहां यह दिखलाया है कि वस्तु अनेकान्त स्वरूप है । एकान्त स्वरूप मानने से बहुत दोष आयगा । हरएक वस्तु में अस्तित्व नास्तित्व दोनों धर्म किसी किसी अपेक्षा से है, एक अपेक्षा से कहना तो ठीक न होगा । जीव द्रव्य हैं क्योंकि जीव में जीव का द्रव्य, जीव का क्षेत्र, जीव की पर्याय, जीव का भाव जीव में है
तब हो उसमें जीव