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श्री सुपार्श्व जिन स्तुति
६६ से भयभीत रहते हैं और सुख की इच्छा किया करते हैं । जो बात अपने लौकिक पुरुषार्थमात्र के प्राधीन नहीं है जिसमें कर्मों के उदय की भी आवश्यकता है उसके लिये दुःखी होते हुए वृथा ही कष्ट पाते हैं-मन को संतापित रखते हैं। जो सम्यग्दृष्टी ज्ञानी हैं वे जानते हैं कि हमारा यह जीवन आयु कर्म के उदय के प्राधीन है। हम आयु कर्म की स्थिति को बिलकुल ही बढ़ा नहीं सकते । इसलिये जब आयु क्षय होगी हमें यह शरीर छोड़ना पड़ेगा व दूसरा धरना पड़ेगा । इसलिये हमको मरण से कभी भय न रखना चाहिये । जिसके समय को हम टाल ही नहीं सकते, उससे भय करना मर्खता है और न हमें रातदिन वैषयिक सुखों की चिन्ता ही करनी चाहिये । वे भी पुण्य कर्म के उदय के प्राधीन हैं । दूसरे ने इन्द्रियों के विषय हमारे चाहने से ही हमारे साथ नहीं ठहरते हैं । जो स्त्री पुत्र मित्रादि चेतन पदार्थ हैं वे अपने अपने कर्मों के प्राधीन हैं । हम चाहते मी रहें कि वे न मरें व वे रोगी न हों व उनका वियोग न हो, परन्तु जब उनका कर्म -उदय होजाता है वे मर जाते हैं, रोगी होजाते हैं. परदेश चले जाते हैं। जो अचेतन पदार्थ है, वे भी नाशवंत हैं। घर, उपवन, वस्त्र, प्रासूषण सब जोर्ग होते जाते हैं। हमारा पुण्य क्षीण होगा तब उनका सम्बन्ध भी नहीं रह सकेगा । ऐसा कर्मों का विचित्र नाटक जानकर वे ज्ञानी वृथा न तो मरने से डरते हैं न भोगाभिलाष से तपते हैं किन्तु निरन्तर धर्म पुरुषार्थ का सच्चे भाव से पालन करते हैं । यह रत्नत्रयमई जिनधर्म ही है जिसके प्रताप से यह प्राणी सर्व कर्मों को नाशकर मरण से छूट जाता है और नित्य मुक्ति को पालेता है-जन्म मरणादि क्लेशों से सदा के लिये अलग हो जाता है। धर्म ही ऐसा पुरुषार्थ है जिसके कारण से पापों का क्षय होता है, पुण्य का लाभ होता है । तब लौकिक दुःख कम होजाते हैं व लौकिक साताकारी सामग्री प्राप्त होजाती है । यह धर्म ही जीव का परम हितकारी है । ज्ञानी जीव सदा ही निशंक रहकर निर्वांछक रहकर प्रात्मानंद का भोग करते हुए परम धर्म से अपना हित करते रहते हैं। वे स्याद्वाद नयसे विचारते रहते हैं कि भवितव्यता भी है और पुरुषार्थ भी है । हमें तो योग्य पुरुषार्थ धर्म अर्थ काम मोक्षका करते ही रहना चाहिये । सफलता तब ही होगी जब देव अनुकूल होगा, जब सिद्धि का समय पाजायगा व अन्तराय कर्म विघ्नकारक न रहेगा।
देवके सम्बन्धमें सुभाषित रत्नसंदोहमें श्री अमितिगति प्राचार्य दिखलाते हैंवितव्यता विधाता कालो नियतिः पुराकतें कर्म । वेधा, विधिस्वभावो भाग्यं देवस्य नामानि ।।३४४।। अन्यत्कृत्यं मनुजश्चितयति दिवा निश विशुद्धधिया-वेधा विदधात्वन्यत् स्वामी च न शक्यते धत् ।।३६२। नरवर सुरवर विद्याधरेषु लोके न दृश्यते कोऽपि । शक्नोति यो निषेद्ध मानोरिव कर्मणामुदयः ॥३६६।।