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श्री सुमति तीर्थकर स्तुति
४७ सा है नास्तिरूप भी है । यदि मात्र अस्ति ही स्वरूप हो, अभावपना स्वरूप न हो तो सर्वया
भावरूप होनेसे परकी अपेक्षा भी भावरूप होजावे । ऐसा हो तो जैसे वृक्ष में फूल है वसा हो प्राकाश में भी होजावे। यह बात प्रतीति में नहीं पा सकती। इससे जो सर्वथा भाववादी ग व अस्तित्ववादी हैं उनका मत ठीक नहीं है । इसी तरह यदि प्रभावरूपपना ही वस्तु का ४. स्वरूप माना जावे तो जैसे पर चतुष्टय की अपेक्षा तत्व अभाव रूप है, वैसे स्वचतुष्टय #. को अपेक्षा प्रभाव रूप होवे । ऐसा होनेपर जैसे आकाश में पुष्प नहीं होता है वैसा वृक्ष
में भी न होवे । सो वह बात प्रतीति में नहीं आ सकती । इस तरह जो सर्वथा शून्यवादी
हैं उनका मत भी ठीक नहीं है। (सर्वस्वभावच्युतं) जो तत्व सर्व स्वभावों से रहित हो र अर्थात् उसमें अस्तित्व नास्तित्व प्रादि स्वभाव एक काल में न हो तो वह (अप्रमाण)
. प्रमाण से सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि (स्ववाग्विरुद्धं) उनके ही वचन से विरोध प्रा ॥ जावेगा । यदि मात्र एक अस्तिरूप अर्थात् अद्वैत हो मानेंगे तो प्रमारण करते हुए द्वंत र पाजायगा और यदि शून्य मानेंगे तो भी प्रमाणित कैसे किया जायगा । और ऐसा एकांत तर तत्व (तवदृष्टितः अन्यत्) आपके अनेकांतमई मत से विरोध रूप है ।
। भावार्थ-यहां प्राचार्य ने समझाया है कि हे भगवन् ! श्रापका सिद्धांत यथार्थ वस्तु का स्वरूप बताता है। हरएक जीव आदि पदार्थ अपने स्वद्रव्य स्वक्षेत्र स्वकाल स्वभावको अपेक्षासे अपनी सत्ता या मौजूदगी रखता है अर्थात् भावरूप या अस्तिरूप है । स्वद्रव्य से प्रयोजन अखंड समुदाय अपने ही गुरण व पर्यायों का है। स्वक्षेत्रसे मतलब अपने ही प्रदेश व अपना ही क्षेत्र जिसमें वह पदार्थ है । स्वकाल से मतलव प्रत्येक समय को अपनी अवस्था जो काल द्रव्य के निमित्त से हुआ करतो है । स्वभाव से मतलब अपना हो स्वभाव व अपने ही गुण हैं। इन चारों का समुदाय एक पदार्थ है। जैसे जीव द्रव्य
का स्वद्रव्य अनन्त गुरणादिका समुदाय एक अखण्ड पिंड है। स्वक्षेत्र उसी के असंख्यात ११६ प्रदेश हैं । स्वकाल उस जीवकी वर्तमान अवस्था है या पर्याय है। स्वभाव उसके ज्ञानादि
गुण हैं । हरएक जीव अपने ही द्रव्य, क्षेत्र, काल भावको अपेक्षा से है। या उसमें उसका र अस्तित्व या भावपना है तब उसीसमय उसमें अन्य समस्त जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, हा प्राकाश व फालका प्रमाव है। इसलिये जीव स्वचतुष्टय की अपेक्षा भावरूप है तब हो
पर वनुष्यको यापेक्षा अभावरूप है। न बह सर्वथा भावरूप है न वह सर्व वा जनावरूप गई है । यदि मात्र भावरूप ही माना जायगा तव एक जीवमें किसी का अभाव ही न सिद्ध ह होगा और यदि अभावरूप ही माना जायगा तो कुछ वस्तु ही न रहेगी।
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