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स्वयंभू स्तोत्र टीका
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से अनेक रूप है । हम यदि द्रव्य को माने, पर्याय को न माने या पर्याय को माने, द्रव्यको न माने तो दोनों ही न रहेंगे । हम यदि सुवर्ण के कंकरण पर्यायको तो मानें परन्तु कहें यह सुवर्ण नहीं है । या कंकरण कुंडल श्रादिको मात्र सुवर्ण ही कहें, कंकरण कुंडलके श्राकाररूप पर्यायको न माने तो हमारा कहना व मानना बन ही नहीं सकता है । क्योंकि जब वह सुवर्णका बना हुआ कंकरण है तब सुवर्ण पहले था वही यह सुवर्ण है ऐसा होने से सुवर्ण द्रव्य सिद्ध होजाता है । पहले कुण्डल था अब वही कंकरण है, ऐसा होने से एक ही सुवर्ण में कुण्डल व कंकरण ऐसा श्रनेकपना सिद्ध होगया इसलिये एकको न मानने से कोई भी नहीं ठहर सकता है । और जब कोई तत्व ही न रहेगा तब उसका कथन ही संभव होगा इसलिये एक व अनेक उभय रूप वस्तुको मानना यही सत्य है व ऐसा हो हे सुमतिनाथ ! आपका मत है । प्राप्तमीमांसा में भी कहा है
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प्रमाणगोचरी सन्तौ मेदामेदो न संवृतिः । तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ।। ३६ ।।
भावार्थ- पदार्थ में भेद व प्रभेद कहना प्रसारण से सिद्ध है उपचार मात्र व यारोप मात्र नहीं है । एकही में बिना किसी विरोधके भेद व प्रभेद सिद्ध हैं। वर्णन करते हुए समय एकको ही कह सकते हैं इसलिये किसी को गौण व किसी को मुख्य कहना पड़ता है ।
त्रोटक छन्द ।
हे तत्व अनेक व एक वही, तत्व भेद प्रभेदहि ज्ञान सही । उपचार कहो तो सत्य नहीं, इक हो अन ना वक्तव्य नहीं ।। १२॥
उत्थानिका - जैसे जीवादि तत्व द्रव्य पर्याय स्वरूप है ऐसा दिखाया है वैसे यह भाव व प्रभाव रूप भी है ऐसा बताते हैं
सतः कथंचित्तदसत्त्वशक्तिः, खे नास्ति पुष्पं तरुषु प्रसिद्धम् सर्वस्वभावच्युतमप्रमारणं, स्ववाग्विरुद्ध तन दृष्टितोऽन्यत् ॥ २३ ॥
प्रपने अन्वयार्थ -- (सतः ) जो कोई सत् रूप विद्यमान आत्मा प्रादि तत्त्व है वह स्वचतुष्टय की अपेक्षा से है, उसी में (कथंचित् ) किसी अन्य अपेक्षा से अर्थात् पर चतुष्टय की अपेक्षा से (असत्त्वशक्तिः) श्रसत्ता या श्रविद्यमानपने की प्रतीति है । वस्तु स्वस्वरूपावि को दृष्टि से प्रतिरूप है वही पर स्वरूपादि की दृष्टि से नास्तिरूप है। वस्तु में अपना वस्तुपना तो है, परन्तु प्रन्य वस्तुपना नहीं है । जैसे ( पुष्पं ) फूल (तरुपु प्रसिद्ध ) वृक्षों में सिद्ध है, परन्तु ( खे नास्ति ) श्राकाश में नहीं है । इसलिये तत्त्व उभयरूप है श्रस्तिरूप भी